अब तक मैने अपनी रचनाए आपसे सांझा की है, अब मै अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा लिखित कथा कहानियाँ मे से एक सांझा कर रहीं हूँ। यह इस श्रंखला की दूसरी कहानी है । माँ का दादी घर नेपाल की तराई में है और यह कहानी उनके गांव की स्मृतियों पर आधारित हैजो २०१० में काठमाण्डू की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और मै उसे फिर से इस ब्लॉग के माध्यम से सबके सामने ला रहीं हूँ, आशा है आप इसे भी पढ़ेगें और पसंद भी करेंगें।
भूली बिसरी यादें
किसी कवि ने सही कहा है कि
"कितनी अच्छी होती है बच्चों की उमर
न नौकरी की चिन्ता न रोटी की फिकर"
हमारी वह बेफिकर जिन्दगी बहुत पीछे छूट गई। अब तो सिर्फ उनकी स्मृतियां ही शेष है। अतीत की और पलट कर देखती हूँ को वे भूले विसरे चेहरे एक चलचित्र के पर्दे पर सरकते नजर आते है । स्मृति-पटल से विलुप्त होती जा रही उन स्नेही आत्मियो को अपनी स्मृति में जीवन्त करने की कोशिश कर रही हूँ, पता नहीं सफल हो पाउंगी या नहीं। सादा जीवन उच्च विचार के सहृदयी मेरे माता-पिता बिना ताज के साम्राज्ञी सी महिमायी मेरी नईकी दादी, बहु आयामिक व्यक्तित्व के धनी मेरे एक दादा विन्देश्वरी प्रसाद जो अपने असली नाम से कम "कनकटवा दादा" के नाम से अधिक प्रख्यात थे। वैद्य दादा जो आवश्यकता से अधिक लम्बाई के कारण झुक कर धनुष बन गए थे। उनका चिड़िमार सा सहायक, जो हमें फूटी आखों नहीं सुहाता और उसे हम सभी भाई-बहन । मुट्ठी भर की काया तथा गजब की जीवट की धनी महंगा महतारी।
उनकी यादें तो मेरे हृदय में है परन्तु क्या मै उनकी यादों को कागज पर सही चित्रण कर उन्हें न्याय दे पाँउगी ? अगर मुझसे कुछ भूल-चूक हो तो वे स्मृति-शेष पुर्वज मुझे क्षमा करे ।
ऊँचा अगला कद कसी हुई कद-काठी, श्यामवर्ण काया, बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आँखें, सर पर काले घुंघराले बाल,और होठों पर सदा मधुर मुस्कान बोली मे शहद की सी मिठास । उस आकर्षक व्यक्ति के नाम के साथ किसने, कब और क्यों एक डरावना परिचय जोड़ दिया "कन कटवा" ।
"कन कटवा" कानको काट लेनेवाला । भला कौन बच्चा इस नाम को सुनकर सहम न जाता । हम सब भी डरकर छुप जाते। हमें बार-बार डराया जाता कि देखो अगर ज्यादा शोर मचाया या शैतानी की तो कनकटवा दादा आ कर कान काट लेंगें । उस समय बच्चों को डराने में बड़ों को बहुत मजा आता था । लोगों को डरते देख हम मज़े ले लेकर खूब हँसते । तब हमलोग गावं के घर में रहते थे । सयुंक्त परिवार था घर में हर उम्र के ढेर सारे बच्चे । सभी अपने-अपने हम उम्र के साथ खेलते ।
ब्रह्मपुरी में हमारा घर
शाम के समय दिनभर के कामों से फुर्सत पाकर पुरूष वर्ग आपस में गप-शप करने हमारे बड़े से दालान में इकठ्ठा होते । अड़ोस -पड़ोस के बड़े-बुजुर्ग भी आ जाते । घरके अन्दर माँ , चाची , बुआ वैगरह शामकी रसोई की तैयारी में जुट जाती । दिन भर गायों को चराने ले जाने वाले चरवाहे गायों के साथ बडी बेसब्री के साथ लौट रहे होते । गायें अपने गले की घंटियां टुनटुनाती हुई, पगडंडी को धूल-धूसरित करती अपने अपने थानो पर रही लौट रही होती । उसी दालान के आगे बहुत बडी कच्ची जमीन का टुकडा था, शायद अनाज बगैरह सुखाने के काम आता हो उसके बाद कच्ची सडक और उसके बाद आमों का बहुत बड़ा साझा बगीचा । शाम के समय सभी छोटे-बड़े बच्चे उसी जगह खेला करते । अपने-अपने हम उम्र बच्चों में सभी मस्त रहते । और हमारे "कनकटवा" बाबा भी उसी समय बुजुर्गों की बैठक में शामिल होने आ जाते । वे आते तो अपनी जेब में रंग बिरंगी मोठी गोलियां भर लाते और सभी बच्चों को अपने पास बुला मीठी गोलियां देते । उनकी मीठी गोलियों का बडा आकर्षण रहता । देखने में लुभावना और खाने मे मीठी गोलियों का लालच किस बच्चे को नहीं रहता ? सभी बड़े बच्चे और बहुत छोटे बच्चे यानि दो तीन सालके बच्चे जिन्हें अपने कानों की फ़िक्र नहीं थी उनके आगे पीछे जमा हो जाते । छोटे बच्चे उनकी गोद में बैठ जाते । बडे़ बच्चे उनसे मीठी गोलियां लेकर चूसते रहते, क्योंकि वे जानते थे, कान काटे नही जाते । आफत हमलोगों की थी । यानि सात आठ साल के बच्चो की, जिन्हें मीठी गोलियो से ज्यादा अपने कान प्यारे थे । हम दूर-दूर से देखते हुये आपस में बाते करते कि हम गोलियाँ लेने जाए, और हमारे कान काट ले तो ?
जाड़े के दिनों में एक डेढ गज के खादी के कपडे, जिसे स्थानीय भाषा मे “गांती कहा जाता था, उससे हमारे सर को ढ़क कर गले के पीछे गांठ लगा दी जाती जिससे सर, कान और आगे छाती ढंक जाती, दोनों बाँह खुले रख कर खेलने में आसानी रहती थी । हम प्लान बनाते गाँती से कानो को खूब कसकर ढक ले और मीठी गोंलियां ले आएं । कानकी सुरक्षा का उचित प्रबन्धकर हम जाते भी परन्तु उनके सामने जाते ही हिम्मत कूच कर जाती और हम भाग खड़े होते । बाबा दुखी हो जाते, हमे तरह-तरह से समझाने की कोशिश करते, पर हमे विश्वास ही नही होता ।
वे सिर्फ हमलोगों के लिये “कनकटवा दादा ही नही थे, कनकटवा नाना, चाचा और कनकटवा मालिक भी थे । अगर बातें सच्ची नही होती तो सभी लोग ऐसा क्यों बोलते हैं हम यही सोचा करते । हम चाचा से पूछते - कि चाचा आपके कान भी दादाने काटे थे क्या ? तो वे वडे़ मायूस होकर कहते, हाँ एक बार काटे थे। हमलोग उनके कान को देखते और कहते - चाचा आपके कान तो है ! उनका जवाब होता कुछ दिन पहले सुखना ने बारी मे घास काटे थे ना, जाकर देख आओ, कहाँ पर काटे थे । हमलोग दौडकर देखने जाते घास कहीं से भी कटी हुई नही लगती । चाचा कहते - देखा घास की तरह कान फिर उग जाते है । चाचा, आपको दर्द नही हुआ “हाँ, हुआ था चाचा का जवाव होता। यह सब सुन कर हम सहम जाते। और निश्चय कर लेते कि दोचार मीठी गोलियों के लिए हम आपने कान काटने नही देंगे । इसी तरह समय बीतता रहा।
दादा बुजुर्गों की गोष्ठी की जान थे । जबतक वे नही आ जाते गोष्ठीका रंग नही जमता । सभी उनका इन्तजार करते । दादा जितने सुदर्शन व्यक्ति थे उतना ही मधुर उनका स्वर भी था। पिताजी नौकरी के कारण अधिक काठमाण्डू मे रहते । संयुक्तपरिवार था, माँ हम भाई बहनों को लेकर गाँव मे रहती । घरमें किसी तरह कोई कमी नही थी । गाँवके घर अधिकांश मिट्टी की दीवार और छप्पर खपडैल की हुआ करती थी । हमलोगो के घर भी वैसे ही थे। गाँवके पूरब कि ओर करीब कोसभर की दूरी पर बागमती नदी अपनी चौडे़ से पाट पर लहराती बलखाती बहती थी । माँ, चाची, बुआ तथा अड़ोस - पड़ोस की औरतें पर्व त्योहार, खासकर एकादशी कार्तिक पूर्णिमा माघ स्नान करने बागमती नदी के तटपर जाती तो हम सब भी जाते । चाँदी से चमकते स्वच्छ बालू पर चलने मे बड़ा मजा आता । तब बागमती स्वच्छता की प्रतीक थी । पानी इतना साफ कि बालू के कण भी नजर आते । तब शहरकी गंदगी की छूत बागमती को नही लगी थी। शायद दूर-दराज गाँवोमे बागमती आज भी वैसी ही हो । समय के परिर्वतन के साथ हमने खुद को साफ सुथरा शहरी बना लिया और स्वच्छ निर्मल बागमती को उसके उद्गमस्थल में ही ढलमती बना दिया ।
यह वर्षों पहले की बात है, कितने शरद, कितनी वर्षा, कितने ग्रीष्म और वसन्त ऋतु हमने देख लिये, ठंढ का मौसम अब भी आता है । बाहर पड़े बर्तन के पानी पर बर्फ की पर्त जम जाती, बाहर तुषार की सफेद चादर सि बिछ जाती, परन्तु तब भी गाँव की सी ठंढ हमने फिर कभी महसूस नही की । दिन तो धूप की गर्म खुशनुमा ही रहता परन्तु रात इतनी ठंडी रहती कि लगता हड्डियां भी जम गई । सुवह ३-४ बजे तक बिछौने -रजाई भी बर्फ सी ठंडी हो जाती । बड़ों के उठने का समय हो जाता पर छोटे बच्चे भी घबड़ा कर रोने लगते । उस समय आज की तरह विद्युतीय उपकरणों का शायद आविष्कार भी न हुआ हो । अगर कुछ रहा तो भी "बेल पका तो कौवे के बापको क्या" वाली कहावत ही चरितार्थ होती । उस समय शहरों में ही बिजली नही थी तो गावों में कहाँ से होती । ग्राम वासियो के लिए राहत की एक ही उपाय उपलब्ध थी और वह था "घूर" । शामको ही हमारे घरमे मेरी माँ की अनन्य भक्त सेविका “महंगा मतारी" उपले, कंडे लकड़ियाँ जमाकर "घूर" जलाकर शायद ढककर रख देती । कैसे सुबह होने तक वह गर्म रहती यह तो वही जाने । घर की सारी औरते उसको घेरकर बच्चोंको गोदमे लेकर बैठ जाती। शायद उसी काम के लिए बड़ा सा दालान घेर-घार कर वना दिये गये थे।
मुंह अँधेरे ही ग्रामीण लोगो की दिनचर्या शुरू हो जाती । धान कूटने की धम धम आवाजे सुनाई पड़ती , चक्की चलने की आवाज के साथ-साथ जतसार के गीत सुनाई पड़ते । हरवाहे हल बैल लेकर खेतों की ओर निकलने की तैयारी मे रहते । चिड़िया सुबह होनेकी सूचना देती चहचहाने लगती । गायके ताजे दूध के उबलने की सोंधी सुगंध से घर आँगन महक उठता । बाहर दालान में भी पुरुष वर्ग घूर की गर्मी में हाथ पांव सेकते और सुबह होने के इन्तजार में बैठे गपशप करते । मेरे इस संस्मरण के नायक दादा भी आ जाते ।उनके आते ही गोष्ठी का रंग बदल जाता । गाँव-जवारों की बेमतलब गप्पे बंद हो जाती और दादा से प्रभाती गाने की फरमाइश होने लगती । गाँवो मे मनोरंजन के साधन सन्ध्या, प्रभाती और आल्हा ऊदल की गाथा ही थी। हमारे घर के पास रामस्वरूप सिंह चाचा का घर था । जबवे डंम्फा के थाप पर आल्हा ऊदल की कथा गाते तो सारा माहौल वीर रस से भर जाता । रेडियो का नाम तो था पर टेलेविज़न का तो किसीने शायद ही सुना हो । दादा सभीका अनुरोध स्वीकार कर प्रभाती गाते । उनका स्वर बहुत ही मधुर या और गला इतना सुरीला की जब वो गाते तो सारा वातावरण ही स्तब्ध हो गया । उनकी स्वर लहरी से समय भी थम गया सा लगता। शायद सूरदास की पदावलि थी जिसकी एक दो पंक्तियां ही अब याद रही ।
"जैसे पलिहें इन्हे कौन हरि बिना पालिहें इन्हें कौन"। भावार्थ- कुरू क्षेत्र के मैदान मे कौरव पाण्डवों की सेना आमने सामने युद्ध के लिए खडी भी । दोनों और के वीर योद्धा अपनी अपनी सेना, हाथी घोडे़ सहित युद्ध शुरू होने की शंख घोष के प्रतीक्षा मे बैचैन हो रहे थे । कुरू क्षेत्रके मैदान के एक कोने में एक वृक्ष पर चिड़ा और चिड़ी अपने नन्हे से घोंसले मे मगन थे । चिड़ी अपने अण्डेको सेती हुई नन्हे-नन्हे शावकों के इन्तजार में मगन हो रही थी । चिड़ा घूम-घूमकर शत्रु से नीड़ की सुरक्षा कर रहा था । उसे युद्ध की विभीषिका का भान भी न था ।
महाभारत युद्धका डंका बजा और महासंग्राम शुरू हुआ । हाथी, घोडे, सैनिक, वीर योद्धा एक दूसरे पर टूट पड़े। भयंकर कोलाहल मच गया। मनुष्य, हाथी घोड़े के लाशो से कुरूक्षेत्र का मैदान पट गया। एक घायल हाथी पीड़ा से चिंघाडता हुआ पेड़ को झकझोरता धरती पर गिरा । उसी समय चिड़ा अपने घोंसले की ओर लौटा और अपने नीड़ को न देख हाहाकार कर उठा। धराशायी पेड़ और मृत हाथी के सिवा उसे अपनी प्यारी और अजन्मे बच्चे कुछ भी नही दिखे । अचानक उसे चिड़ी की ची-ची की आवाज सुनाई दी और खोजने पर उसे हाथी के गले की बडी सी घंटी के ओट मे उसे अपना घोंसला, चिड़ी और अन्डे सुरक्षित मिल गये।
अठारह दिनों तक महाभारतका युद्ध चलता रहा । पृथ्वी वीरयोद्धाओ से सूनी हो गयी । पाँच पाण्डव को छोड़ सभी देशों के राजा, वीर योद्धा वीरगतिको प्राप्त होगये। कौरव वंशका नाम निशान मिट गया । उन अठारह दिनो में चिड़ा और चिड़ी अपने बच्चों को दाना चुन-चुन कर खिलाते रहे। भयंकर युद्ध जारी था पर वे हाथी की विशाल देह की ओट में सुरक्षित थे । बच्चे बड़े हो गये और अपने पर खोलने लगे । चिड़िया अपने बच्चो के चोंच में तब तक दाना डालते है जब तक वह सक्षम न हो जाय । जब वे उड़ने लायक हो जाते है तो माँ बाप खिलाना बन्द कर देते हैं । अगर वे उसे खिलाते रहें तो कभी उड़ना भी न सीख पाये । चिड़ा - चिड़ी बच्चेको छोड़ कर चले गये । बच्चे अपने नन्हें नन्हें चंचु खोले भूख से व्याकुल हो गये तो घोसले से बाहर आकर पहली बार अपने पंख फैलाये और फुर्र से उड़ गये। सूर कहते हैं - "बच्चे के प्रभु पंख विन्हा, तुरंत हो गये प.. ओ.. न देख चरित्र विचित्र हरीके सूर हो गये मौन, पालिहें इन्हे कौ.. न"। प्रत्येक सुबह का यही नियम था । उस गोष्ठीमे गाँवके एक पंडितजी आया करते थे नाम तो मुझे न तब मालूम था और न अब। हाँ ! उनकी सूरत शकल आज भी याद है । औसत कद गठीला बदन, और सरपर मोटी सी चुटिया । चुटिया जैसी ही मोटी-मोटी मूंछे । खादीकी धोती, कुरता और कंधे पर खादी का गमछा। महात्मागाँधी के परमभक्त । बोलने में उन्हें शायद ही कोइ जीत पाये । दादा से उनकी बहस होती तो वे कायस्थ जाति के बारे में सौ-सौ कहावतें बयान करते । कहते - अरे लाला ने तो बनिये के गतायु पुत्र को शतायु दिखाकर विधाता को भी झूठा बना दिया । तुम लाला लोग तो तारे गिनकर भी पैसे निकाल लेते हो। उनकी बातों के प्रतिकार में दादा कहते - मिसरजी, आप ब्राहमणों के कारण ही कलियुग मे धान के उपर भूसका खोल चढा, पहले पौधे पर चावल फला करता था । मनुष्यको धान कूटने-झटकने की झंझट ही नही थी । आपके पूर्वजको सात घरों से श्राद्धका भोज खाकर रास्ते मे चावल नोच-नोच कर खाते देख कर विधाता ने चावल के उपर खोल चढ़ा दिया। मनही मन विधाता ने कहा कि एक भी भूस सहित चावल गले में फंसा तो दिन में तारे देख लोगे ब्राम्हण देवता !
आज आपके कारण की ही सभी को कितना झंझट उठाना पड़ता है । मिसर जी के पास प्रतिकारो की कोई कमी थी ही नही भला क्यो हार मानते। कहते विन्दा बाबू , आपके जाति का पहला अक्षर ही आपके जाति का परिचय देता है क से कायस्थ, कुटिल, कपटी और कौवा कटखना। कितनी कितनी कहावतों से दोनो ओर से प्रहार होता उतना अब याद नही। फिर भी अतीत के गर्भ मे समा गये उन यादों को को याद करने पर कुछ न कुछ हाथ लग ही जाता है। कुछ और याद करने के लिये किसीका सहारा लूँ तो देखती हूँ कि समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल गया है। अब जितनी भी यादें बांकी है वही बहुत है । सुबह का उजाला फैलने लगता तो सभी अपने अपने घर जाने को उठ खड़े होते और मिसरजी पूछते- क्यों लाला हार मान गए न ! उत्तर में दादा कहते :-
ब्राम्हण पैठि पाताल छले बाली ।
ब्राम्हण साठ हजार को जान्यों ।।
ब्राम्हण सोखि समुद्र लियो ।
ब्राम्हण ही जदुवंश उजड्यो ।।
ब्राम्हण लात हन्यो हरि के उर ।
बाम्हण छत्रिण के दल मार्यो ।।
ब्राम्हण से जनि वैर करो कोई ।
ब्राम्हण से परमेश्वर हार्यो ।।
भला बताईये मिसरजी. जब परमेश्वर ही आपसे हार गये तो यह लाला किस खेत की मूली है। और दोनों के संयुक्त ठहाके से वातावरण गूंज उठता। दोनों कल सुबह मिलने का वादा करके विदा हो जाते ।
कुछ समय बाद हमलोग पिताजी के साथ काठमाण्डू आ गये । अपना गांव, अपने लोग सभी का साथ छूट गया । तब आने जाने की इतनी सुविधा नहीं थी । कई वर्ष बीत गए । हम सब बड़े भी हुए थोड़ी समझ भी आई । कान कटने का भय भी नहीं रहा । सोचा अब गांव जायेंगे तो पूछेंगे, किसने उनका यह डरावना नाम रखा । एकदिन चाचा आये और बताया की दादा नहीं रहे । इस तरह हमारा प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया ।