हमारे
प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा किये
गए थाली, ताली बजाने और दिया जलाने के आह्वान ने मुझे भी
कुछ सोचने पर विवश कर
दिया है। कोरोना कहर के बीच अपनी
परवाह न कर जनता
कि सेवा करने वाले डॉक्टर, अन्य स्वस्थ्य कर्मी, सफाई कर्मचारी, पुलिस, सुरक्षा कर्मी, सेना के जवान, बैंक
कर्मी इन सब को
धन्यवाद कहने का यह अनोखा
तरीका मोदी जी ही सोच
सकते है। यह सभी लोग
हमारी सहायता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप
से पहले से ही करते
आये है। मॉल,
सिनेमाघर, अस्पताल या किसी रिहायशी जगह के
सुरक्षाकर्मी जब हमारे लिए दरवाज़ा खोल कर सलाम
करता है, शायद ही
लोगों ने धन्यवाद न सही, मुस्करा
कर ही उनकी काम को सराहा हो।
उनकी तरफ
देखने का भी कष्ट
नहीं उठाते। हवाई यात्रा में नम्रता से दुहरी हुई
जाती एयर होस्टेस द्वारा हमारे स्वागत में
किये नमस्कार का जवाब भी कुछ ही लोग देते है। हमें लगता है यह तो उनके काम का एक हिस्सा भर है।
जीवन
यात्रा में भी कई लोग मिल जाते है जो हमारे जीवन में अपनी तरह से प्रभाव डालते है।
उस समय उनकी की गई मदद साधारण-सी लगती है। मैं भी अतीत में मुड़ कर देखती हूँ तो कई
लोग याद आते है जिन्होंने हमारे लिए कभी न कभी कुछ किया था। आज मैं उनको धन्यवाद देना
चाहती हूँ। कभी-कभी तो एकदम अनजान अपरिचित लोगों ने भी सही समय पर सहायता या सहयोग
दिया है । ऐसी ही तक़रीबन पचास साल पुरानी एक घटना अभी याद आ रही है। जब मैं काठमांडू के एक कॉलेज में पढ़ रही थी । मैं और मेरी
एक सहेली दोपहर तीन बजे के करीब कॉलेज से घर लौट रही थी। रास्ता बनाने के लिए एक तरफ
मिट्टी का ढेर लगा था और दूसरी तरफ एक 5-6 फ़ीट गहरा और 20 फ़ीट चौड़ा और कुछ ज़्यादा ही
लम्बा गड्ढा था। बारिश के दिन थे और इस कारण वह गड्ढा कीचड़-कीचड़ था और दलदल बना हुआ
था। उसी गड्ढे के बगल से निकल कर आगे रोड तक जाने का ये हमारा रोज़ का रास्ता था, उन दिनों वहां पूरा खेत था जिसके बीच से एक पतली गली जाती थी । किनारे एक काम चलाऊ
गेराज भी था । घूम कर पक्के रास्ते से जाने पर दो ढाई किलोमीटर का चक्कर पड़ जाता था
। उस दिन कुछ दूर पर कुछ गायें चर रही थी और उनके बीच एक हठ्ठाकठ्ठा साढ़ भी था । लोग फिर
भी आ जा रहे थे । हमें खतरे का कोई अहसास नहीं हुआ क्योंकि वे खासी दूरी पर थे और लोग
आ जा भी रहे थे । पर जैसे ही हम गढ्ढे के किनारे किनारे कुछ दूर गए होंगे हमने देखा
की वह सांढ़ फुंफकारते हुए हमारी ओर ही चला आ रहा था हम दोनों घबरा कर कोई और चारा
न देख कर उसी गढ्ढे़ में उतर गए । आस पास के
लोगों ने फिर साढ़ को खदेड़ दिया । खदेड़ने वालों में गेराज के मैकेनिक भी थे । इस भगदड़ और आपाधापी में मैं कुछ ज्यादा ही नीचे उतर गयी थी
। मेरे दोनों पैर कीचड़ में धंस गए थे । एक पैर किसी तरह निकल कर एक सूखी जगह रख कर मैंने दूसरे पैर भी किसी तरह निकला पर
चप्पल तो वहीं अटक गयी । कीचड तबतक बराबर भी हो गया था । मैं पैर कीचड में डाल कर
चप्पल निकालने की कोशिश करने लगी पर नाकाम रही। गढ्ढे के ऊपर नज़र गई तो देखा दस पंद्रह
लोग इकठ्ठा हो चुके थे। दशहत और शर्म से मानों कलेजा बाहर आने को बेताब हो रहा था।
मैंने दूसरा चप्पल भी वहीं छोड़ा और बाहर निकल कर नंगे पाँव ही घर की ओर चल दिए।
अगले
दिन फिर उसी जगह वही साढ़ नज़र आया । हमें जाने
की हिम्मत न पडी और
हम लम्बे रास्ते की
ओर बढ़े ही थे की
कुछ लड़के हाथों में लकड़ी लिए हुए दौड़े आये और उन्होंने उन
गायों और उस साढ़
को वहां से
खदेड़ दिया । इसी बीच
एक लड़का मेरी तरफ आया और एक थैला मेरे
हाथों में थमा कर भाग गया
। थैले में अख़बार में लिपटे सामान को खोलने पर
मेरे दोनों चप्पल निकले, धुले, सुखाये और पॉलिश किये
हुए । मैं कभी
नहीं जान पायी वह कौन था
।
शायद गेराज में काम करने वालों में से कोई था
।
आज
मैं सोच रही थी हमारे पास
सांढ से बचने के कोई और ऑप्शन थे क्या? नेशनल
जीयोग्रफिक्स चैनल में एक प्रोग्राम आता है
“Do or Die” जिसमें ऐसे
ही कठिन परिस्थिति में बचने के तीन ऑप्शन
दिए जाते है और एक
ही सही होता है । जैसे
A) हम या तो
पीछे मुड़ कर सांढ से
ज्यादा तेज़ भाग लेते । B) अपने
शाल को मेटाडोर की
तरह प्रयोग कर के सांढ़
से पीछा छुड़ा लेते । C) गड्ढे में
उतर जाते । निश्चित रूप
से नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल भी ये ही बताता
की C) ऑप्शन ही
सही था । हा हा हा
।
दूसरी
घटना कॉलेज के शुरुआती दिनों के है । कॉलेज का ड्रेस था खादी की गेरुआ + लाल, और कथ्थई
बॉर्डर वाली साड़ी । साड़ी मोटी और भारी थी और हम थे नवसिखिया । कभी साड़ी एक बार में
ही मनचाहे तरीके से लिपट जाती और कभी अड़ियल टट्टू
की तरह ज़िद पर अड़ जाती तो बार बार कोशिश करने पर भी ठीक से पहन न पाते । इसी चक्कर में अक्सर कॉलेज के लिए देर हो जाती ।
माँ, चाची को देख कर बड़ा आश्चर्य होता की साड़ी पहन कर हर काम कैसे आसानी से कर लेती हैं। साड़ी
तो पहन लेते पर सड़क तक आते आते साड़ी पैरों में लिपटने लगती । छोटे छोटे कदम चलने पड़ते
। फिल्म "दीवाना मस्ताना" में गोविंदा
के बेबी स्टेप देख कर बरबस अपनी स्थिति याद आ गयी थी। इसके चलते बस स्टॉप पहुंचने में देर हो जाती । दूर से
बस दिख तो जाती पर दौड़ना मुश्किल होता । पूरी ताकत लगा कर चलते पर तेज़ चल न पाते । बिलकुल निराश हो जाती। सभी यात्री चढ़
जाते और बस अभी खुली की तभी खुली की स्थिति में आ जाती। अभी भी हम दूर ही होते । लेकिन
यदि बस कंडक्टर ने हमें देख लिया होता तो २-३ मिनट बस को रोके रखता ताकि हम पहुंच जाए
। बस कॉलेज गेट के सामने से ही गुजरती पर बस
स्टॉप आधा किलोमीटर आगे था या आधा किलोमीटर पीछे । साड़ी पहन कर हमारा इतना चल लेना भी
बड़ा काम था । अक्सर कंडक्टर हमें पहले स्टॉप पर उतरने से रोक देता और कॉलेज गेट के
सामने बस रोक कर हमें उतर देता । मैं आज भी
उन बस ड्राइवर और कंडकटर का कृतज्ञ हूँ ।
हमारे
घर की एक सदस्य बुढ़ी माई भी जिन्होनें लगभग पच्चीस
वर्ष तक हमारे साथ रह कर सबकी सेवा की भी धन्याद की पात्र है । उन्होंने हम बच्चों की अनेकों ज्यादतियां बड़बड़ाते कोसते हुए ही सही बर्दास्त किया
। कभी हम कुत्ते का बच्चे उठा ले आते या मुर्गी
के चूज़े । हमरी जि़म्मेदारी तो बस उनसे खेलने की होती । उन छोटे छोटे चूज़ों और पिल्लों
की गन्दगी सांफ करना । समय पर दड़बे से बहार करना, या फिर बंद करना बुढ़ी माई ही करती
। बुढ़ी माई की कथा कहने लगू तो यह ब्लॉग काफी
लम्बा हो जाएगा तो अगली बार फुर्सत से ।
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