Thursday, November 26, 2020

बूढी माई की अनोखी कहानी पार्ट- १ - सरोज

जीवन के सफ़र में अनेक लोगों से साबका पड़ता हैं। कभी पढ़े लिखे डिग्री हासिल किए लोगों की संकीर्ण मानसिकता हमें दुखी कर जाती है और कभी बिलकुल अनपढ़ और लोगों की नज़र में गंवार समझे गए लोगों का नज़रिया आश्चर्य में डाल देता है। ऐसा ही विलक्षण  व्यक्तित्व था बुढ़ीमाई का। बचपन से ही बूढ़ीमाई को साथ देखा था। ५ वर्ष की थी जब वह हमारे यहाँ रहने आई । मेरे दूसरे छोटे भाई किशोर के जन्म के समय से ही लगभग पच्चीस वर्षों तक साथ रही। छोटा-सा कद, चेहरे पर अनेक सिलवटें और झुर्रियों का जाल । पर होठों पर एक मुस्कुराहट। ऊँची साड़ी और कमर में पटुका बाँधे हर समय काम में ब्यस्त।
बुढ़ी माई रूपा, किशोर, बबली और मुन्ना के साथ
पूरे घर की सफाई, पुताई उसकी ही जिम्मेवारी थी । काठमांडू में पुराने घरों में फर्श मिटटी के ही होते थे । महीने में एक दिन फर्श पर बिछी दरी और चादर उठाकर धूल झाड़ा जाता, धूप दिखाई जाती । घर के फर्श पर मिटटी और गोबर की पुताई की जाती। सूखने पर सभी सामान यथास्थान रखा जाता। सोफे या कुर्सी का प्रचलन नहीं था । बैठने के लिए मोटे-मोटे गद्दे (नेपाली में चकती) की आसनी बनी होती जिसमें सफ़ेद या हल्के रंग के गिलाफ चढ़े होते जिन्हें हर हफ्ते धोया जाता ।रसोई की लिपाई पुताई हर रोज़ होती थी। घर में सबसे नीचे झिरी होती जिसका उपयोग स्टोर रूम या गाय आदि बांधने के लिए किया जाता। पहला तल्ला रहने सोने के लिए होता। रसोई सबसे उपर attic में होता।  लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता। सुबह सबेरे उठकर चूल्हा जला कर पीने का पानी उबलने के लिए बड़ी देग में चढ़ाया जाता। चाय का पानी चढ़ा कर दो बोरसी में आग सुलगा कर बूढ़ीमाई अपनी बोरसी ले कर बैठ जाती चाय के इंतज़ार में। माँ के रसोई में पहुँचने तक चाय का पानी उबल चुका होता। पीने का पानी भी उबल चुका होता । उसे हटा कर दाल का अदहन चढ़ा दिया जाता। दो आँख वाले चूल्हे पर एक ओर दाल उबलता होता और दूसरे पर चाय बनती, दूध गरम होता ब्रेड सेंका जाता। नाश्ता निपटने तक सब्जी बनने लगती फिर चावल चढ़ा दिया जाता। नाश्ता कर हम पढ़ने बैठ जाते। दस बजे स्कूल और ऑफिस जाने के लिए खाना बन कर तैय्यार हो जाता। बूढ़ी माई का काम माँ के साथ चलता रहता। दो मंजिले (नेपाली: ब्यूंगल, English Attic) पर रसोई घर था और नल नीचे आँगन में था। वहाँ से पानी भर लाना, मसाला पीसना, सब्जी धोना सभी काम चलता रहता। हम सभी चाय, दूध पी लेते तो केतली बूढ़ी माई को थमा दिया जाता । शुरू-शुरू में माँ सबके साथ-साथ बूढ़ी माई को भी उसके गिलास में चाय दिया करती और दोपहर का खाना भी थाल में निकाल कर पकड़ा देती । लेकिन हमारी अनोखी बूढ़ीमाई असंतुष्ट ! दिन भर बड़बड़ाती रहती । चाय भी नहीं मिला या खाना नहीं खाया या चाय ठीक नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने की हड़बड़ी में किसी दिन माँ ने केतली ही पकड़ा दी और उसदिन उसकी संतुष्टि और मस्कुराहट देख कर माँ को समझ में आया। भले ही किसी दिन केतली में बची चाय से उसका गिलास आधा ही भरता, माँ की और चाय बना कर देने की पेशकश बड़ी बेफिक्री से ठुकरा देती, यह कहकर की ज़्यादा चाय नहीं पीनी चाहिए. खाने के मामले में भी यही बात थी । खाने के बाद रसोई बुढ़ीमाई के हवाले हो जाता। सब्जी धोने वाले कठौती में खाना परोसकर आनंद ले कर खाते देखना हम बच्चों के लिए कौतुक भरा रोचक दृश्य था। कभी कभी वह सब्जी परोसने वाली बड़ी चम्मच को ही अपने खाने का चम्मच बना लेती।
शाम के नाश्ते में कभी हलुवा, खीर या कुछ नया बनता तो हम बच्चे कुछ ज्यादा ही खा लेते। माँ हम सबका हिस्सा निकाल कर बुढ़ीमाई का हिस्सा उसी बर्तन में छोड़ देती । हम और मांगते तो माँ को मना करना पड़ता । तब बुढ़ीमाई अपना हिस्सा हमें बाँट देती और कहती बच्चों को अतृप्त रख कर मैं कैसे खा पांउगी। हमें भी यह "ज्ञान" हो गया कि बुढ़ीमाई को स्वादिष्ट चीजों की जरूरत नहीं ! क्योंकि माँ नाश्ते में कुछ चूड़ा, मुढ़ी या ब्रेड दे देती । तो एकदिन हमनें कड़ाही में छोड़े बुढ़ीमाई का हिस्सा आपस में बाँट लिया। उस दिन उसकी असंतुष्ट बड़बड़ाहट से माँ को घटना का पता चला। सबसे बड़ी होने के चलते मुझे डांट के साथ हिदायत मिली। पर इसमें भी सबसे ज्यादा दुःख बुढ़ीमाई को ही हुआ कि उसके कारण हमें डाँट पड़ रही है।
घर में अक्सर मेहमान पशुपति दर्शन के लिए आते ही रहते। सप्ताह भर रह कर काठमाण्डू भ्रमण कर वापस लौटते। सुबह शाम बर्तनों का ढ़ेर लग ही जाता पर उसका चेहरा मलिन न होता। "चेहरे पर शिकन  नहीं पड़ती" ऐसा इसलिए नहीं कहा क्योंकि इतनी झुर्रीयों और शिकन के बीच कोइ "एक शिकन" कैसे पता चलता। लेकिन कुकर के मामले में ऐसा न था। कुकर के अन्दर मुड़े किनारे के कारण शायद धोने में दिक्कत होती या पानी ज्यादा लगता जो उसे नीचे से ढ़ोकर लाना होता।बड़बड़ाती रहती 'कितना कहती हूँ इस लामपुच्छ्रे (लम्बी पूंछ ) को मत निकालो पर कौन सुने।

किशोर के जन्म के समय आई बुढ़ीमाई मेरे छोटे भाई अनिल और गुड्डू के जन्म की साक्षी बनी। हम पांच भाई बहनों के रोज़ के हड़कंप को कितनी सरलता से संभाल लेती। कभी हम कुत्ते के पिल्लों को उठा लाते एक दो नहीं चार-चार । फिर माँ के डांटने पर एक को रख कर बांकी वापस रख आना पड़ता या कोई लेने वाला हुआ तो बड़ी अहसान और हिदायत के साथ दिया जाता। पिल्लों में से एक का चुनाव बड़ी समझदारी से किया जाता। हम भाई बहन बारी-बारी से पिल्लों को दोनों कान से पकड़ कर उठाते और झुलाते। जो पिल्ला कूँ-कूँ करता वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाता। चार दिनों तक कुत्ते की पावरिश हम बच्चे बड़ी जिम्मेदारी से उठाते, खाना पानी का ध्यान रखा जाता पर उसकी गन्दगी साफ़ करने का काम तो बूढी माई को ही करना पड़ता। सप्ताह दस दिनों के बाद हमारा ध्यान शायद मुर्गी के चूज़ों पर चला जाता और हम उसे अपने पॉकेट खर्च को बचा खरीद कर ले आते। उनका भी यही हाल होता। फिर सारी जिम्मेदारी बुढ़ी माई की ही होती। शाम को सभी चूज़ों को गिनकर दरबे में बंद करती सुबह दरबे से निकाल कर दाना पानी देने से लेकर पूरे आँगन में फैलाये गन्दगी दिन में दो बार साफ़ करने तक। लेकिन सभी समय बुदबुदाती बड़बड़ाती रहती।
कुत्ते की गन्दगी साफ़ करते वक्त "मरता भी नहीं" उसे ऐसा बड़बड़ाते हमने कई बार सुना था। वह कुत्ता था भी बहुत असभ्य। बालकनी (बार्दली) के लोहे के छड़ के बीच से गर्दन बहार निकाल कर हर आने जाने वाले पर पूरी ताकत से भौंकता रहता। कभी-कभी इतना उत्तेजित हो जाता लगता ऊपर से ही कूद पड़ेगा। कई बार रास्ते चलने वाले बच्चों के पीछे भी पड़ गया था तब से उसे बांध कर ही रखते। जिन बच्चों को दौड़ाया था वे बदला लेने के लिए उसे गुलेल से पत्थर मारते। एक दिन एक पत्थर ने उसकी आंख ले ली। उस दिन हमने बूढी माई को रोते देखा ! दूसरी बार कुछ सालों बाद, वह कुत्ता जिसका नाम ही हमने डेंजर रखा था अचानक गायब हो गया। अक्सर वह गायब होने पर एक दो दिन में वापस भी आ जाता। पर इस बार नहीं लौटा। पता नहीं कहाँ चला गया। हमने गली मोहल्ले में पूछा, खोजा पर नहीं मिला। मोहल्ले वालों ने तो रहत की साँस ली होगी। पर बूढ़ी माई के चेहरे की वह मुस्कान उन दिनों गायब हो गई। उठते बैठते बड़बड़ाती श्राप देती रहती। उसके ख्याल से किसी कुत्ता पीड़ित ने ही उसे मार डाला होगा सो उस अदृश्य हत्यारे को कोसती रहती। जब हमने याद दिलाया कि उसके मरने का मनता तो वह खुद ही करती रहती थी तो बूढी माई आहत हो गयी। मरने का मतलब "मर जाना नहीं होता" उसका कहना था। मनुष्य का जीवन बड़े पुण्य के बाद मिलता है इसलिए जीवन को भगवान का आशीर्वाद मान कर ज़्यादा से ज़्यादा सार्थक बनाना चाहिए. किसी ज्ञानी पंडित की तरह उसके विचार सुनकर माँ भी आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगी थी। पढ़ने के समय अगर हम कहीं और दिख जाते तो तुरंत टोक देती। उसको अपने नहीं पढ़ पाने का अफ़सोस शायद था। जिसको पढ़ने लिखने का मौका मिला उसे उसका महत्त्व नहीं होता उसकी डांट के शब्द होते। माँ के डांट से भी हमें बचाती रहती।
लोगो से ज़्यादा मोह माया नहीं रखना चाहिए, ऐसा उसका विचार था। पर आचरण में उलट ही दिखता । शब्दों में वह अपनी भावना ब्यक्त नहीं करती थी पर उसकी खुशी और सुख दुःख की अभिव्यक्ति उसके चेहरे पर साफ़ दिख जाती । एक वाकया हमें याद है जब मैं अपने दो साल की बिटिया को लेकर काठमांडू आई हुई थी। जनवरी की जमा देने वाली सुबह। हम सब चाय पीने रसोई घर पहुँचे। बूढी माई भी सभी काम निपटा कर एक बोरसी लिए ठिठुरती उंगलियों को गरमाने में लगी थी। मेरी बिटिया सानु मेरा हाथ छोड़कर बूढी माई के सामने खड़ी हो गयी। बूढी माई ने बोरसी दूर सरका दी। तब तक सानु उसका शाल सामने से हटा कर उसकी गोद में बैठ गयी और शाल से अपने हाथ पैर ढ़क लिए। उस दिन बूढी माई के चेहरे पर जो तृप्ति की मुस्कान मैंने देखी आज भी मेरे आँखो के सामने है। उस मुस्कान में क्या था ? इस घर को अपना समझने की तृप्ति जिसका मूल्य इस बच्ची ने चुका दिया।
अभी भी बहुत कुछ हैं हमारी अपनी बूढी माई के याद करने के लिए । फिर कभी।

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