Tuesday, May 11, 2021

भूली बिसरी यादें "कनकटवा दादा" लेखिका स्व राजन सिन्हा

अब तक मैने अपनी रचनाए आपसे सांझा की है, अब मै अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा लिखित कथा कहानियाँ मे से एक  सांझा कर रहीं हूँ। यह इस श्रंखला की दूसरी कहानी है । माँ का दादी घर नेपाल की तराई में है और यह कहानी उनके गांव की स्मृतियों पर आधारित हैजो २०१० में काठमाण्डू की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और मै उसे फिर से इस ब्लॉग के माध्यम से सबके सामने ला रहीं हूँ, आशा है आप इसे भी पढ़ेगें और पसंद भी करेंगें।

भूली बिसरी यादें

किसी कवि ने सही कहा है कि
"कितनी अच्छी होती है बच्चों की उमर
न नौकरी की चिन्ता न रोटी की फिकर"

हमारी वह बेफिकर जिन्दगी बहुत पीछे छूट गई। अब तो सिर्फ उनकी स्मृतियां ही शेष है। अतीत की और पलट कर देखती हूँ को वे भूले विसरे चेहरे एक चलचित्र के पर्दे पर सरकते नजर आते है । स्मृति-पटल से विलुप्त होती जा रही उन स्नेही आत्मियो को अपनी स्मृति में जीवन्त करने की कोशिश कर रही हूँ, पता नहीं सफल हो पाउंगी या नहीं। सादा जीवन उच्च विचार के सहृदयी मेरे माता-पिता बिना ताज के साम्राज्ञी सी महिमायी मेरी नईकी दादी, बहु आयामिक व्यक्तित्व के धनी मेरे एक दादा विन्देश्वरी प्रसाद जो अपने असली नाम से कम "कनकटवा दादा" के नाम से अधिक प्रख्यात थे। वैद्य दादा जो आवश्यकता से अधिक लम्बाई के कारण झुक कर धनुष बन गए थे। उनका चिड़िमार सा सहायक, जो हमें फूटी आखों नहीं सुहाता और उसे हम सभी भाई-बहन । मुट्ठी भर की काया तथा गजब की जीवट की धनी महंगा महतारी।


उनकी यादें तो मेरे हृदय में है परन्तु क्या मै उनकी यादों को कागज पर सही चित्रण कर उन्हें न्याय दे पाँउगी ? अगर मुझसे कुछ भूल-चूक हो तो वे स्मृति-शेष पुर्वज मुझे क्षमा करे ।

ऊँचा अगला कद कसी हुई कद-काठी, श्यामवर्ण काया, बड़ी-बड़ी भावपूर्ण आँखें, सर पर काले घुंघराले बाल,और होठों पर सदा मधुर मुस्कान बोली मे शहद की सी मिठास । उस आकर्षक व्यक्ति के नाम के साथ किसने, कब और क्यों एक डरावना परिचय जोड़ दिया "कन कटवा" ।

"कन कटवा" कानको काट लेनेवाला । भला कौन बच्चा  इस नाम को सुनकर सहम न जाता । हम सब भी डरकर छुप  जाते। हमें बार-बार डराया जाता कि देखो अगर ज्यादा शोर मचाया या शैतानी की तो कनकटवा दादा आ कर कान काट लेंगें  । उस समय बच्चों  को डराने में बड़ों को बहुत मजा आता था । लोगों को डरते देख  हम मज़े ले लेकर खूब हँसते । तब हमलोग गावं के घर में रहते थे । सयुंक्त परिवार था घर में हर उम्र के ढेर सारे बच्चे ।  सभी अपने-अपने हम उम्र  के साथ खेलते ।


ब्रह्मपुरी में हमारा घर

शाम के समय दिनभर के कामों  से फुर्सत पाकर पुरूष वर्ग  आपस में गप-शप करने हमारे बड़े  से दालान में इकठ्ठा  होते । अड़ोस -पड़ोस  के बड़े-बुजुर्ग भी आ जाते । घरके अन्दर माँ ,  चाची , बुआ वैगरह  शामकी रसोई की तैयारी में जुट जाती । दिन भर गायों को चराने ले जाने वाले चरवाहे गायों  के साथ बडी बेसब्री के साथ लौट रहे होते । गायें अपने गले की घंटियां टुनटुनाती हुई, पगडंडी को धूल-धूसरित करती अपने अपने थानो पर रही लौट रही होती । उसी दालान के आगे बहुत बडी कच्ची जमीन का टुकडा था, शायद अनाज बगैरह सुखाने के काम आता हो उसके बाद कच्ची सडक और उसके बाद आमों का बहुत बड़ा साझा बगीचा । शाम के समय सभी छोटे-बड़े बच्चे उसी जगह खेला करते । अपने-अपने हम उम्र बच्चों में सभी मस्त रहते । और हमारे "कनकटवा" बाबा भी उसी समय बुजुर्गों की बैठक में शामिल होने आ जाते । वे आते तो अपनी जेब में रंग बिरंगी  मोठी गोलियां भर लाते और सभी बच्चों को अपने पास बुला मीठी गोलियां देते । उनकी मीठी गोलियों का बडा आकर्षण रहता । देखने में लुभावना और खाने मे मीठी गोलियों का लालच किस बच्चे को नहीं रहता ? सभी बड़े बच्चे और बहुत छोटे बच्चे यानि दो तीन सालके बच्चे जिन्हें अपने कानों की फ़िक्र नहीं थी उनके आगे पीछे जमा हो जाते । छोटे बच्चे उनकी गोद में बैठ जाते । बडे़ बच्चे उनसे मीठी गोलियां लेकर चूसते रहते, क्योंकि वे जानते थे, कान काटे नही जाते । आफत हमलोगों की थी । यानि सात आठ साल के बच्चो की, जिन्हें मीठी गोलियो से ज्यादा अपने कान प्यारे थे । हम दूर-दूर से देखते हुये आपस में बाते करते कि हम गोलियाँ लेने जाए, और हमारे कान काट ले तो ?  

जाड़े के दिनों में एक डेढ गज के खादी के कपडे, जिसे स्थानीय भाषा मे “गांती कहा जाता था, उससे हमारे सर को ढ़क कर गले के पीछे गांठ लगा दी जाती जिससे सर, कान और आगे छाती ढंक जाती, दोनों बाँह खुले रख कर खेलने में आसानी रहती थी । हम प्लान बनाते गाँती से कानो को खूब कसकर ढक ले और मीठी गोंलियां ले आएं । कानकी सुरक्षा का उचित प्रबन्धकर हम जाते भी परन्तु उनके सामने जाते ही हिम्मत कूच कर जाती और हम भाग खड़े होते । बाबा दुखी हो जाते, हमे तरह-तरह से समझाने की कोशिश करते, पर हमे विश्वास ही नही होता ।

वे सिर्फ हमलोगों के लिये “कनकटवा दादा ही नही थे, कनकटवा नाना, चाचा और कनकटवा मालिक भी थे । अगर बातें सच्ची नही होती तो सभी लोग ऐसा क्यों बोलते हैं हम यही सोचा करते । हम चाचा से पूछते - कि चाचा आपके कान भी दादाने काटे थे क्या ? तो वे वडे़ मायूस होकर कहते, हाँ एक बार काटे थे। हमलोग उनके कान को देखते और कहते - चाचा आपके कान तो है ! उनका जवाब होता कुछ दिन पहले सुखना ने बारी मे घास काटे थे ना, जाकर देख आओ, कहाँ पर काटे थे । हमलोग दौडकर देखने जाते घास कहीं से भी कटी हुई नही लगती । चाचा कहते - देखा घास की तरह कान फिर उग जाते है । चाचा, आपको दर्द नही हुआ “हाँ, हुआ था चाचा का जवाव होता। यह सब सुन कर हम सहम जाते। और निश्चय कर लेते कि दोचार मीठी गोलियों के लिए हम आपने कान काटने नही देंगे । इसी तरह समय बीतता रहा।

दादा बुजुर्गों की गोष्ठी की जान थे । जबतक वे नही आ जाते गोष्ठीका रंग नही जमता । सभी उनका इन्तजार   करते । दादा जितने सुदर्शन व्यक्ति  थे उतना ही मधुर उनका स्वर भी था। पिताजी नौकरी के कारण अधिक काठमाण्डू मे रहते । संयुक्तपरिवार था, माँ हम भाई बहनों को लेकर गाँव मे रहती । घरमें किसी तरह कोई कमी नही थी । गाँवके घर अधिकांश मिट्टी की दीवार और छप्पर खपडैल की हुआ करती थी । हमलोगो  के घर भी वैसे ही थे। गाँवके पूरब कि ओर करीब  कोसभर की दूरी पर बागमती  नदी अपनी चौडे़ से पाट  पर लहराती बलखाती बहती  थी । माँ, चाची, बुआ  तथा अड़ोस - पड़ोस की औरतें पर्व त्योहार, खासकर एकादशी  कार्तिक पूर्णिमा माघ स्नान करने बागमती  नदी के तटपर जाती तो हम सब भी जाते । चाँदी से चमकते स्वच्छ बालू  पर चलने मे बड़ा मजा आता । तब  बागमती  स्वच्छता की प्रतीक थी । पानी इतना साफ कि बालू के  कण भी नजर आते । तब शहरकी गंदगी की छूत बागमती को नही लगी थी। शायद दूर-दराज गाँवोमे बागमती आज भी वैसी ही हो । समय के परिर्वतन के साथ हमने खुद को साफ सुथरा शहरी बना लिया और स्वच्छ निर्मल बागमती को उसके उद्गमस्थल में ही ढलमती बना दिया ।

यह  वर्षों पहले की बात  है, कितने शरद, कितनी वर्षा, कितने ग्रीष्म और वसन्त ऋतु हमने देख लिये, ठंढ का मौसम अब  भी आता है । बाहर पड़े बर्तन  के पानी पर बर्फ की पर्त जम जाती, बाहर तुषार की सफेद चादर  सि बिछ जाती, परन्तु तब भी गाँव की सी ठंढ हमने फिर कभी महसूस नही की । दिन तो धूप की गर्म खुशनुमा ही रहता परन्तु रात इतनी ठंडी रहती कि लगता हड्डियां भी जम गई । सुवह ३-४ बजे तक बिछौने -रजाई भी बर्फ   सी ठंडी हो जाती । बड़ों के उठने का समय हो जाता पर छोटे बच्चे भी घबड़ा कर  रोने लगते । उस समय आज की तरह विद्युतीय उपकरणों का शायद आविष्कार भी न हुआ हो । अगर कुछ रहा तो भी "बेल पका तो कौवे के बापको क्या" वाली कहावत ही चरितार्थ होती । उस समय शहरों में  ही  बिजली  नही थी तो गावों में कहाँ से होती । ग्राम वासियो के लिए राहत की एक ही उपाय उपलब्ध थी और वह था "घूर" । शामको ही हमारे घरमे मेरी माँ की अनन्य भक्त सेविका “महंगा मतारी" उपले, कंडे  लकड़ियाँ  जमाकर "घूर" जलाकर शायद ढककर रख देती । कैसे सुबह  होने तक वह गर्म रहती यह तो वही  जाने । घर की सारी औरते  उसको घेरकर बच्चोंको गोदमे लेकर बैठ जाती। शायद उसी काम के लिए  बड़ा सा दालान घेर-घार कर वना दिये गये थे।

मुंह अँधेरे ही ग्रामीण लोगो की दिनचर्या शुरू हो जाती । धान कूटने की धम धम आवाजे सुनाई पड़ती , चक्की चलने  की आवाज के साथ-साथ जतसार के गीत सुनाई पड़ते । हरवाहे हल बैल  लेकर खेतों की ओर निकलने की तैयारी  मे रहते । चिड़िया   सुबह  होनेकी सूचना देती चहचहाने लगती । गायके ताजे दूध के उबलने  की सोंधी सुगंध से घर आँगन महक उठता  । बाहर दालान में भी पुरुष वर्ग घूर की गर्मी में हाथ पांव  सेकते और सुबह  होने के इन्तजार में बैठे गपशप करते । मेरे इस संस्मरण के नायक दादा भी आ जाते ।उनके आते ही गोष्ठी का रंग बदल जाता । गाँव-जवारों की  बेमतलब  गप्पे बंद  हो जाती और दादा से प्रभाती गाने की फरमाइश  होने लगती । गाँवो  मे मनोरंजन के साधन सन्ध्या, प्रभाती और आल्हा ऊदल की गाथा ही थी। हमारे घर के पास रामस्वरूप सिंह चाचा का घर था । जबवे डंम्फा के थाप पर आल्हा ऊदल की कथा गाते तो सारा माहौल वीर रस से भर जाता ।  रेडियो का नाम तो था पर टेलेविज़न का तो किसीने शायद ही सुना हो । दादा सभीका अनुरोध स्वीकार कर प्रभाती गाते । उनका स्वर बहुत ही मधुर या और गला इतना सुरीला की जब वो  गाते तो सारा वातावरण ही स्तब्ध हो गया । उनकी स्वर लहरी से    समय भी थम गया सा लगता। शायद सूरदास की पदावलि थी जिसकी  एक दो पंक्तियां ही अब याद रही ।

"जैसे  पलिहें  इन्हे कौन हरि बिना पालिहें इन्हें कौन"। भावार्थ- कुरू क्षेत्र के मैदान मे कौरव पाण्डवों की सेना आमने  सामने युद्ध के लिए खडी भी । दोनों और के वीर योद्धा अपनी अपनी सेना, हाथी घोडे़ सहित युद्ध शुरू होने की शंख घोष के प्रतीक्षा मे बैचैन  हो रहे थे । कुरू क्षेत्रके मैदान के एक कोने में एक वृक्ष पर चिड़ा और चिड़ी  अपने नन्हे से घोंसले मे मगन थे । चिड़ी  अपने अण्डेको सेती हुई नन्हे-नन्हे शावकों के इन्तजार में मगन हो  रही थी । चिड़ा घूम-घूमकर शत्रु से नीड़ की सुरक्षा कर रहा था । उसे युद्ध की विभीषिका का भान भी न था ।

महाभारत  युद्धका डंका बजा  और महासंग्राम शुरू हुआ । हाथी, घोडे, सैनिक, वीर योद्धा एक दूसरे पर टूट पड़े।  भयंकर  कोलाहल मच गया। मनुष्य, हाथी घोड़े के लाशो से कुरूक्षेत्र का मैदान पट गया। एक घायल हाथी पीड़ा से चिंघाडता हुआ पेड़  को झकझोरता धरती पर गिरा । उसी समय चिड़ा  अपने घोंसले की ओर लौटा  और अपने नीड़  को न देख हाहाकार कर उठा। धराशायी पेड़  और मृत हाथी के सिवा उसे अपनी प्यारी और अजन्मे बच्चे कुछ भी नही दिखे । अचानक उसे चिड़ी  की ची-ची की आवाज सुनाई दी और खोजने पर उसे हाथी के गले की बडी सी घंटी के ओट मे उसे अपना घोंसला, चिड़ी  और अन्डे सुरक्षित  मिल गये।

अठारह दिनों  तक महाभारतका युद्ध चलता रहा । पृथ्वी वीरयोद्धाओ से सूनी हो गयी । पाँच पाण्डव को छोड़  सभी देशों के राजा, वीर योद्धा वीरगतिको प्राप्त होगये। कौरव वंशका नाम निशान मिट गया । उन अठारह  दिनो में चिड़ा  और चिड़ी   अपने बच्चों को दाना चुन-चुन कर खिलाते रहे। भयंकर युद्ध जारी था पर वे हाथी की विशाल देह  की ओट में सुरक्षित थे । बच्चे बड़े  हो गये और अपने पर खोलने लगे । चिड़िया  अपने बच्चो के चोंच में तब  तक दाना डालते है जब तक वह सक्षम न हो जाय । जब  वे उड़ने  लायक हो जाते है तो माँ बाप  खिलाना  बन्द कर देते हैं । अगर वे उसे खिलाते रहें तो कभी उड़ना  भी न सीख पाये । चिड़ा - चिड़ी बच्चेको छोड़ कर चले गये । बच्चे अपने नन्हें नन्हें चंचु खोले भूख से व्याकुल हो गये तो घोसले से बाहर आकर पहली बार अपने पंख फैलाये और फुर्र से उड़ गये। सूर कहते हैं - "बच्चे के प्रभु पंख विन्हा, तुरंत हो गये प.. ओ.. न देख चरित्र विचित्र हरीके सूर हो गये मौन, पालिहें इन्हे कौ.. न"। प्रत्येक सुबह का यही नियम था । उस गोष्ठीमे गाँवके एक पंडितजी आया करते थे नाम तो मुझे न तब मालूम था और न अब। हाँ ! उनकी सूरत शकल आज भी याद है । औसत कद गठीला बदन, और सरपर मोटी सी चुटिया । चुटिया जैसी ही मोटी-मोटी मूंछे । खादीकी धोती, कुरता और कंधे पर खादी का गमछा। महात्मागाँधी के परमभक्त । बोलने में उन्हें शायद ही कोइ जीत पाये । दादा से उनकी बहस होती तो वे कायस्थ जाति के बारे में सौ-सौ कहावतें बयान करते । कहते - अरे लाला ने तो बनिये के गतायु पुत्र को शतायु दिखाकर विधाता को भी झूठा बना दिया । तुम लाला लोग तो तारे गिनकर भी पैसे निकाल लेते हो। उनकी बातों के प्रतिकार में दादा कहते - मिसरजी, आप ब्राहमणों के कारण ही कलियुग मे धान के उपर भूसका खोल चढा, पहले पौधे पर चावल फला करता था । मनुष्यको धान कूटने-झटकने की झंझट ही नही थी । आपके पूर्वजको सात घरों से श्राद्धका भोज खाकर रास्ते मे चावल नोच-नोच कर खाते देख कर विधाता ने चावल के उपर खोल  चढ़ा दिया। मनही मन विधाता ने कहा कि एक भी भूस सहित चावल गले में फंसा तो दिन में तारे देख लोगे ब्राम्हण देवता !

आज  आपके कारण की ही सभी को कितना झंझट उठाना पड़ता है । मिसर जी के पास प्रतिकारो की कोई कमी थी ही नही  भला क्यो हार मानते। कहते विन्दा बाबू , आपके जाति का पहला अक्षर ही आपके जाति का परिचय देता है क से कायस्थ, कुटिल, कपटी और कौवा कटखना। कितनी कितनी कहावतों से दोनो ओर से प्रहार होता उतना अब याद नही। फिर भी अतीत के गर्भ मे समा गये उन यादों  को  को याद करने पर कुछ न कुछ हाथ लग ही जाता है। कुछ और याद करने के लिये किसीका सहारा लूँ तो देखती हूँ कि समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल गया है। अब जितनी भी यादें बांकी है वही बहुत है । सुबह का उजाला फैलने लगता तो सभी अपने अपने घर जाने को उठ  खड़े होते और मिसरजी पूछते- क्यों लाला हार मान गए न ! उत्तर में दादा कहते :- 

ब्राम्हण पैठि पाताल छले बाली  ।  

ब्राम्हण साठ  हजार को जान्यों ।।

ब्राम्हण सोखि  समुद्र लियो ।

ब्राम्हण ही जदुवंश  उजड्यो    ।।

ब्राम्हण लात हन्यो हरि के उर ।

बाम्हण छत्रिण  के दल मार्यो ।।

ब्राम्हण से जनि वैर करो कोई ।

ब्राम्हण से परमेश्वर हार्यो ।।

भला बताईये मिसरजी. जब परमेश्वर ही आपसे हार गये तो यह लाला किस खेत की मूली है। और दोनों  के संयुक्त ठहाके से वातावरण गूंज उठता। दोनों कल सुबह मिलने का वादा करके विदा हो जाते ।

कुछ समय बाद हमलोग पिताजी के साथ काठमाण्डू आ गये । अपना गांव, अपने लोग सभी का साथ छूट गया । तब आने जाने की इतनी सुविधा नहीं थी  । कई वर्ष बीत गए । हम सब बड़े भी हुए थोड़ी समझ भी आई । कान कटने का भय भी नहीं रहा । सोचा अब गांव जायेंगे तो पूछेंगे, किसने उनका यह डरावना नाम रखा । एकदिन चाचा आये और बताया की दादा नहीं रहे । इस तरह हमारा प्रश्न अनुत्तरित ही रह गया ।  

Saturday, May 8, 2021

भाई दूज की बजरी लेखिका मेरी माँ स्व राजन सिन्हा,

अब तक मैने अपनी रचनाए आपसे सांझा की है, अब मै अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा लिखित कथा कहानियाँ मे से एक मदर्स डे पर सांझा कर रहीं हूँ। मै अपने बचपन से उनसे उनकी  स्मृतियाँ पर आधारित कहानियाँ सुनती आई हूँ। माँ का दादी घर नेपाल की तराई में है और नानीघर बिहार के मिथिलांचल में, और उनकी बहुतों कहानियाँ ईन क्षेत्रों पर ही आधारित हैं। 2009 में उनकी कुछ संस्मरण काठमाण्डू की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और मै उसे फिर से इस ब्लॉग के माध्यम से सबके सामने ला रहीं हूँ, आशा है आप इसे भी पढ़ेगें और पसंद भी करेंगें। पहली रचना नेपाल तराई क्षेत्र, बिहार में पारंपरिक ढंग से मनाए जाने वाले भाई दूज के त्योहार पर आधारित है।

बाबुजी, माँ और मेरा ममेरा भाई नवीन


भाई दूज की बजरी

दशहरा दीपावली का त्योहार हमारे हिन्दु समाज में अलग अलग महत्व रखता है। पर भैया दूज का बहने बड़े बेसब्री से इंतजार करती है। बचपन से हम सभी बहनें अपने भाईयों को कैसे टीका लागाएगीं, कैसी माला बनाएगीं, किसकी माला सबसे सुंदर होगी की होड़बाजी करती थी। घर में माँ, चाची, बुआ,सारी तैयारी करते पर हम बहनों को अपनी अपनी कल्पना की उड़ान से मतलब था। हम बच्चों पर कोई जिम्मेदारी तो थी नहीं। सबसे ज्यादा खुशी हमें बजरी कूटने मेें आती। ननिहाल में रहते तो नानी और दादी के घर रहते तो दादी एक ही कथा सुनाती कि कैसे सात बाहनों ने यमराज से अपने एकलौते भाई की प्राण रक्षा की । वह कथा मुझे अब भी याद है । नानी दादी की कथा उनके ही शब्दों में :-

बहुत पुरानी बात है किसी गाँव में एक ब्राम्हण दम्पति रहा करते थे। उनका नाम था देवदत्त शर्मा तथा ब्राम्हणी रुद्रमती। दोनों पति-पत्नि बहुत ही सीधे, सरल तथा धार्मिक प्रवृति के थे । समय के साथ साथ देवदत्त के घर में एक-एक कर सात कन्याऔं ने जन्म लिया। पुत्रियों के जन्म को उन्होनें भगवान का वरदान माना। कभी अपना मन दुखी नहीं किया पर एक पुत्र की आकांक्षा उनके मन में थी,  कि एक पुत्र होता तो वंश आगे बढ़ता । मरने पर पिंड पानी देगा । पर उनके वश में तो कुछ था नहीं ईश्वर की इच्छा समझ कर पुत्रियों को अच्छे संस्कार देकर पालन पोषण करने लगे।

धीरे-धीरे बेटियाँ बड़ी हुई । उनकी सखी-सहेलियाँ भईया-दूज की तैयारी करती तो, उन्हें लगता कि हम भी भईया दूज में भाई को टीका लगाएगीं ।भाई को मिठाई खिलाएगें । घर जाकर माँ से पूछती तो माँ मना करती कि तुम्हारा कोई भाई नहीं है । वे माँ से प्रश्न करती हमारा कोई भाई क्यों नहीं है, सभी के भाई है, पर हमारा क्यों नहीं? माँ बेचारी क्या उत्तर देती, इतना ही कह देती “भगवान ने नही दिया ।"

माता पिता ने बेटियों के नाम गुण अनुरूप ही रखे थे, धीर-गम्भीर गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, अलकनंदा, कावेरी और सबसे छोटी सबसे चंचल नर्मदी। सभी बहनों ने विधि के विधान को स्वीकार कर लिया परन्तु नर्मदा के मन ने यह स्वीकार नहीं किया । वह सोचती भगवान ने हमारे ही साथ यह अन्याय क्यों किया ? हमें भाई के सुख से वंचित क्यों किया। वह भगवान से प्रार्थना करती, रुठती, रोती और यही कहती, क्या तुम्हारे लिए हमारा दुख कोई मतलब नहीं रखता। कैसे भगवान हो तुम जो मेरी इतनी सी बात नहीं सुनते इन्ही दिनों ईश्वर की कृपा से ब्राहम्ण दम्पत्ति के घर एक पुत्र ने जन्म लिया । गोल मटोल सुन्दर सा पुत्र पाकर दोनों ने ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद दिया। बहनें तो निहाल हो गई। बड़े प्यार से उन्होनें बालक का नाम सुदर्शन रखा ।

ब्राम्हण परिवार सुख से समय व्यतीत करने लगे। बेटियाँ ब्याह योग्य हो गयी तो ब्राह्मण दम्पत्ति ने अच्छे संस्कारशील परिवारों में योग्य वर खोज कर गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, अलकनन्दा और कावेरी का विवाह कर उनको ससुराल भेज दिया। पर सबसे छोटी, सबसे तेज, हठीली नर्मदा ने न जाने क्या सोच कर विवाह से इन्कार कर दिया। शायद उसके मन में नाबालिग भाई और वृद्धावस्था की ओर बढ़ते माता पिता की असुरक्षा का भय था। उसने फिर कौमार्य ब्रत धारण करने की घोषणा कर दी।

दादी की कथा आगे बढ़ती रही। भईया दूज के दिन हम सभी मुंह अंधेरे नहा धो करा तैयारी हो जाते। बडे़ लोग अपनी अपनी तैयारी में जुटे रहते। सबेरे ही गाय के गोबर से आँगन लीपकर शुद्ध किया जाता । बीच आंगन में दादी चौका पूर कर, एक दिन पहले गोवर्धन पूजा मे प्रयोग किया गया गोबर से एक डरावनी सी आकृती बना कौड़ी की आखें डाल देती और आकृति की छाती पर एक पूरी इँट डाल उसपर एक मूसल रख देती । उल्टे यानी बायाँ हाथ से पूजा करने कहती। हम पूछते, बायाँ हाथ से क्यों, तो दादी कहती पहले सारी कथा सुन ले, बाद में प्रश्न पूछना।

इंटरनेट से लिया फोटो, कॉपी राइट वालों का आभार !

सुदर्शन दस वर्ष का हो गया था। उस बार भईया-दूज के दिन सातों बहनें अपनी तैयारी में लगी थी। आंगन को गाय के गोबर से लीप कर पवित्रता का प्रतिक अक्षत (चावल) और संघर्ष का प्रतीक लाल अबीर से अल्पना बनाया । जीवनी शक्ति का प्रतीक जल से भरा शुभ शगुन का प्रतीक कलश पर आत्म-चेतना का प्रतीक दीप प्रज्वलित किया । अमरता का प्रतीक दूब को दीर्घायु का प्रतीक सरसों के तेल में डुबोकर चौके को सुरक्षित घेरे में बाँध कुश के आसन पर भाई को बैठाकर कर टीका लगाने, “बजरी” खिलाने तैयार हुई । नवग्रह का प्रतीक नौ तरह के दलहनमें एक “हरी छोटी मटर" को स्थानीय बोलचाल की भाषा में “बजरी” कहा जाता है।पवित्रता का प्रतीक पान, सुपारी, और बजरी का होना अनिवार्य है। कभी न मुरझाने वाला मख मली, कभी न सूखने वाला कपास की माला, फल फूल, लक्ष्मीका प्रतीक द्रव्य, शीतलता का प्रतीक दही, थाली में सजाकर सुख सौभाग्य का प्रतीक सिन्दुर का टीका लगाने को बढ़ी ही थी कि एक अति डरावनी आकृति के पुरुष को अपने सामने पाकर चकित रह गई। कुछ पल को वह बोल ही नहीं पाई। फिर साहस बटोर कर नर्मदा ने पूछा कौन है आप और किस उद्देश्य से पघारे है । आप हमारे घर आए अतिथि है, हम आपकी क्या सेवा करे ।

उस डरावने पुरुषने कहा न मै तुम्हारा अतिथि हूँ और न मुझे तुम्हारी कोई सेवा चाहिए मै यमराज हूँ। इस बालक की आयु समाप्त होने को है । मैं इसे लेने आया हूँ, शीघ्र इसे इस सुरक्षित घेरे से बाहर निकालो । मैं इसके प्राण लेकर चला जाउँगा। सभी बहनें एक दूसरे का मुंह देखने लगी। किसी को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि, क्या करें, क्या कहे, क्या हमारा प्राण प्रिय भाई हमसे विछुड़ जायगा।

यम की रट देख तीक्ष्ण बुद्धि नर्मदा समझ गई कि इन अमरता की प्रतीक वस्तुओं का अनादर यम नहीं कर सकते, तभी तो इसे इस रक्षा रेखा से बाहर लाने की रट लगा रहे है। उसने धैर्यता से काम लिया। और यमराज से अनुनय-विनय करने लगी। हे देव, आप तो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, आपसे कोई बच नहीं सकता । मृत्यु तो जीवन का शाश्वत सत्य है, जो प्राणी जन्म लेता है उसे एक न एक मृत्यु विश्राम लेना ही पड़ता है । यह सत्य न आपसे छिपा है न हम मानवों से । फिर भी आप इस नन्हें से बालक पर दया कर इसके वृद्ध माता पिता पर कृपा कर के उनका सहारा न छीने । नर्मदा के अनुनय विनय का यम पर कोई असर नही पडा। वे यही रट लगाते रहे कि शीघ्र इसे मेरे हवाले करो, मुझे सुर्यास्त से पहले अपनी भगिनी यमुना के घर जाना है । यम की बात सुन नर्मदा ने कुछ सोचा .....

अपने भवन के द्वार पर खड़ी सुर्य पुत्री यमुना मन हीं मन व्याकुल होकर भाई की प्रतिक्षा कर रही थी क्यों नही आया। कहाँ रह गया। पिताके शाप से शापित पंगु पद से वह चल नही सकता । उसका मन्दबुद्धि-मन्दगति वाहन महिष किधर खो गया । भाई-दूजका समय बीता जा रहा था। भाई के अनुसन्धान में उसने अपने अनुचर को चारों और दौड़ाए , पर सभी सर झुकाये आकर खडे़ हो गये । सुर्यपुत्री यमुना ने अपने पिताको याद किया और उधर ही चल पड़ी ।

दिनभर के प्रचन्ड ताप से सारी सृष्टि, जीव-जन्तु, पेड-पौधे सभी को झुलसाकर अरुण रथ के आरोही स्वंय थकित व्यथित, अपने प्रचन्ड तेजको समेटते हुए अपने विश्राम स्थल अस्ताचल की ओर झुकने लगे । शनै शनैः  निशासुन्दरी के आगमन की संकेत मिलने लगे। प्रातःकाल से दाना दुनका के खोज में निकले पक्षी कलरव करते हुये अपने नीड़ के तरफ उड़ चले । माँ की प्रतिक्षा में भूख से व्याकुल नन्हे नन्हे शावक, चक्षु खोले चंचल हो उठे । सद्य वत्सा गौए दुग्धभार से थकित धीर मंथर गति से चलकर अपने बछड़े की भूख मिटाने गौशाला की और चली जा रही थी। गोधूली की बेला में गोधूली से सारी पगडंडी आच्छादित हो उठी। भुखे-प्यासे क्लांत गो चारक व्याकुलता से घर पहुंचने को आतुर थे । निशासुन्दरी अपने तारों की सेना के साथ अपना साम्राज्य स्थापित करने दिवाकर को पीछे से आक्रमण कर उन्हे अंधकार में डुबो देने को आतुर अपनी असंख्य सितारों जड़ी काली चादर से सारी प्रकृति को ढक देने की संकल्प के साथ तेजीसे चली आ रही थी।

पिताश्री, पिताश्री "एक क्षण को रुक जाइये, रुक जाइये" । परिचित स्वर की पुकार सुन दिवाकर ने अपने रक्तिम नेत्रोको खोलकर देखा, पुत्री यमुना उन्हें पुकारती हुई चली आ रही है। उन्होने अपनी गति को थोड़ा भी विराम न देकर पुछा । पुत्री क्या विपत्ति आ गई, जो तू इतनी व्याकुल है। सुर्यपुत्री यमुना ने कहा - हे पिता श्री भाई दूजका समय निकला जा रहा है मैं भाई की प्रतिक्षा करते थक गई । पर वह अभीतक नही आया मैने उसके अनुसन्धान में अपने अनुचर को चारो ओर भेजा, पर वह कही नहीं मिला । कृपया आप अपनी दष्टि चारों ओर घुमाकर देखें, वह कहा किस हाल में है। सुर्यदेव ने अपनी दृष्टी आकाश, पाताल, धरती पर केन्द्रित कर यमको खोजने की चेष्टा की। परन्तु उनकी शत्तिः शनैः शनैः क्षीण होती जा रही थी, उन्होने पृथ्वी परअपनी दृष्टि दौडाई तो उन्हें विश्वास करना कठिन हो गया। पुत्र की दुर्दशा पर उनका हृदय द्रवित हो गया। उदण्ड ही सही, श्रापित ही सही, था तो अपना पुत्र ही। पिताका हृदय व्यकुल हा गया। उन्होने यमुना से कहा पुत्री, शीघ्र जा और अपने भाई की रक्षा कर । अब तू ही उसका उद्धार कर सकती है। मेरी शक्ति अब क्षीण हो चकी है। यमुनाको उसका गन्तव्य बताकर सुर्यदेव अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर गये।

यमुना उस स्थान पर पहुंची जहाँ सातों बहनें यम की छाती पर रखी शिला पर बजरी और सुपारी तोड़ रही थी। सुपारी छिटक छिटक कर दूर गिर रही थी और उसे उठा उठा कर धमाधम कूट रही थी । असहाय सा भाई चित पड़ा था। उसका मन्दगति वाहन आनन्द से बैठा जुगाली कर रहा था। यमुना ने कहा तुम यह क्या कर रही हो। इसे छोड़ दो। यह मेरा भाई है, मै भाई दूज के लिए इसे लेने आई हूँ ।

बुद्धिमती नर्मदा  तो इसी की प्रतीक्षा में थी। तभी तो उसने इस शर्त पर यम से वचन मांगा था कि उनकी छाती पर शिला रख, सुपारी और बजरी तोड़, भाईको बजरी खिलाकर उन्हे सौप देगी। वह न सुपारी तोड़ रही थी और न ही बजरी । वह जानती थी कि यमुना अवश्य आयेगी और तब वह यम से निबट लेगी। उसने कहा हे देवी यमुना, क्या आप चाहेगी आज के दिन किसी बहन का भाई उससे छिन जाय । क्या आप यह स्वीकार करेंगी कि आपका भाई आपसे सदा के लिय यह बिछड़ जाय । आप अपने भाई से कहे कि वे मेरे भाई को जीवन दान दे, नही तो मैं सारी उम्र उनकी छाती पर सुपारी और बजरी तोड़ती रहूँगी। यमुना ने कहा - पुत्री मैं तुझे वचन देती हूँ, तेरा भाई तुझसे कभी अलग नहीं होगा । तू यमको मुक्त कर दे । शाम होते ही तेरे भाई का योग टर गया है।

नर्मदा की दृढता उसका विश्वास लगनशीलता देख देवी यमुना बहुत प्रसन्न हुई। उन्होने कहा - पुत्री नर्मदा  तुम्हारा भातृ प्रेम, भाई के प्रति तुम्हारा उत्सर्ग देख मै तुमपर बहुत प्रसन्न हुँ, मांगो मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करुंगी।

हे देवी अगर आप मुझे वरदान देना चाहती है तो यही वरदान दीजिए कि किसी बहन का भाई न अल्पायु हो और न आजके दिन उसे काल स्पर्श कर सके । नर्मदा ने वडी विनम्रता से प्रार्थना की । “हे पुत्री नर्मदा तुम्हारे भातृ प्रेम की गंगा तुम्हारे ह्दय मे अनवरत रुप से युगो-युगो तक प्रवाहित होती रहे । जब तक यह धरती, चन्द्र और सुर्य का अस्तित्व तब तक तुम स्नेह की भागीरथ बन निरन्तर सबको प्रेमका सन्देश देती रहो। तुम्हारे जल में प्रवेश कर जो बहन अपने भाई को बजरी खिलायेगी उसे कभी भाई का वियोग सहन करना नही पडे़गा।

तबसे आजतक चिरकुँवारी नर्मदा नदी रुप में इस धरती पर अपनी अबाध, अविरल, धीर-गम्भीर गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ती रही है ।

बस दादी की कहानी यहीं समाप्त हो गयी । दादी ने पूछा कुछ और पूछना हैं या सब समझ गई । हमने समझने की मुद्रा में सर हिला दिया , और भाइयों को बजरी खिलाने दौड़ पड़ी ।

Monday, November 30, 2020

मधुबनी पेन्टिगं-मेरा कुछ प्रयास : सरोज सिन्हा

मधुबनी चित्रकला चित्रकला की एक शैली है। यह बिहार राज्य के मिथिला क्षेत्र में प्रचलित है। इसका विषय देवताओं और पौराणिक कथाओं पर आधारित होता है। आम तौर पर चित्र में कोई खाली जगह नहीं छोड़ी जाती है। खाली जगह को फूलों, जानवरों, पक्षियों, और ज्यामितिय आकारों से भरा जाता हैं। चित्रों में प्रयोग किए रंगों को बनाने के लिए पत्तियों, जड़ी बूटियों और फूलों का उपयोग होता है। भारत और नेपाल के मैथिल भाषी क्षेत्र में मधुबनी कला (या मिथिला चित्रकला) का अभ्यास ज्यादा किया जाता है। चित्रकारी प्राकृतिक रंगों, कालिख (LAMP BLACK) और अन्य रंगद्रव्यो का उपयोग करके उंगलियों, टहनियों, ब्रश, निब-पेन और मैचस्टिक्स के साथ किया जाता है। दीवार कला के रूप में यह चित्रकला पूरे क्षेत्र में व्यापक रूप से प्रचलित है। कपड़ा, हस्तनिर्मित कागज और कैनवास पर किए पेंटिंग का हालिया विकास मुख्य रूप से मधुबनी के आसपास के गांवों में हुआ है। यह चित्रकला पारंपरिक रूप से ताजा प्लास्टर्ड मिट्टी की दीवारों और झोपड़ियों के फर्श पर किया जाता है। दरभंगा में कलाकृति, मधुबनी में वैधी, मधुबनी जिले के बेनिपट्टी और रंती में ग्राम विकास परिषद, मधुबनी चित्रकला के कुछ प्रमुख केंद्र हैं, जिन्होंने इस प्राचीन कला को जीवित रखा है।

शैलियाँ मधुबनी कला की पांच विशिष्ट शैलियों हैं
  • भरनी
  • कचनी
  • तांत्रिक
  • गोदना
  • कोहबर
  • भरनी, कचनी और तांत्रिक शैली मुख्य रूप से उच्च समझे जाने वाले ब्राह्मण और कायस्थ महिलाओं द्वारा की जाती थी। दूसरी जाति की महिलाए सिर्फ गोदना और कोहबर शैली की चित्रकारी ही करती थी। पर अब कोई जातीय भेदभाव नहीं हैं और कोई भी किसी भी शैली के चित्र बना सकता है ।

    पुरस्कृत कलाकार
  • 1969 में सीता देवी को बिहार राज्य पुरस्कार, 1981 में पद्म श्री, 1984 में बिहार रत्न और 2006 में शिल्प गुरु सम्मान
  • 1975 में जगदंबा देवी को पद्मश्री सीता देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार
  • 1984 में गंगा देवी को पद्मश्री
  • 2011 में महासुंदरी देवी को पद्मश्री
  • बौवा देवी, यमुना देवी, शांति देवी, चानो देवी, बिंदेश्वरी देवी, चंद्रकला देवी, शशि कला देवी, लीला देवी, गोदावरी दत्ता और भारती दयाल,चंद्रभूषण, अंबिका देवी, मनीषा झा को राष्ट्रीय पुरस्कार।
  • जैसा मैने ऊपर भी लिखा है, मधुबनी पेंटिंग बिहार के मिथिला क्षेत्र का एक लोककला है। इसमें प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता है। ऐसी मान्यता है कि यह कला सीता राम विवाह के समय से चली आ रही है जब विवाह के समय राजा जनक ने नगर सजाने का आदेश दिया। उस समय लोगों ने नगर सजाने के लिए चित्रकला की जिस विधा का उपयोग किया वही विधा मधुबनी चित्रकला नाम से प्रसिद्ध है। मिथिला क्षेत्र की महिलाए आज भी अपने घर की दीवारों को सजाने और कोहबर लिखने में इस कला का उपयोग करते है। कोहबर लिखने की परम्परा पूरे बिहार में ही प्रचलित है। 1934 मे आए भूकंप के समय मधुबनी क्षेत्र का दौरा करने आए एक अंग्रेज अधिकारी ने गिरे हुए दीवारों पर इस प्रकार की चित्रकारी देखी और इसे मधुबनी आर्ट का नाम दिया।

    sita sywambar

    सीता स्वयम्बर


    Ganesh

    गणेश

    fish-women

    मछलीवाली

    दुलहन


    पक्षी



    मयूर



    Book Mark



    Wall Hanging



    चित्रकला सीखने के क्रम में सबसे पहले मैने अपने बिहार की प्रसिद्ध लोककला मधुबनी पेंटिंग बनाई है और मेरे चित्रों में से कुछ प्रस्तुत है। मेरी चित्रकला यात्रा कुछ दिनों पहले ही शुरू हुई है। पुर्णबन्दी से उत्पन्न बोरियत को कैसे दूर करने का उपाय सोच रही थी मैं। न कुछ करने का था न कहीं जाने का। ठण्ड में तो स्वेटर इत्यादि बुनकर। अन्य समय में कुछ कढ़ाई सिलाई के काम में मन लगा लेती हूँ। पर अभी कुछ करने को नहीं था। रांची में फिर भी बागवानी और कई और घर के अन्य कामों में व्यस्त हो जाती हूँ पर अभी मैं नॉएडा में पुत्र, पुत्रवधु, पोता और पोती के साथ रह रही हूँ और सिर्फ 11 KM दूर रहने वाली पुत्री और नातियों से कभी-कभार की मिल पाती हूँ। ऐसे में बिटिया ने चित्रकारी करने की सलाह दी। चित्रकारी और मै? मैने हँस कर टाल दिया। पर वह पीछे ही पड़ गई की उसके दोस्त की बहन अनुपम ONLINE CLASS ले रही है चित्रकारी की, और क्यूं न मै एक क्लास करके देख लूं। ठीक लगे तो आगे करना वर्ना न करना। मुम्बई से ऑनलाईन क्लास में चित्रकारी सीखने की शुरुआत मधुबनी चित्रकारी से ही हुई। दरभंगा (मिथिला) की बेटी होने के नाते मधुबनी चित्रकारी से परिचित तो हूँ, प्रशंसक भी हूँ। तो हिम्मत बाँध कर में मैदान में आ ही गई। बिटिया की सासु माँ हमारी प्रिय समधिन भी ज्वाइन कर रही थी जिससे मेरी हिम्मत और भी बढ़ गई। मेरी रुचि आर्ट वर्क में रही है और मुझे अनुपम जी के क्लास में मज़ा आने लगा। मै वारली, मन्डला और चित्रांकन की अन्य विधाएं भी सीख रही हूँ और कालान्तर में उसे भी प्रस्तुत करूंगी।



    Thursday, November 26, 2020

    बिराटनगर में एक दिन-सरोज

    कोरोना के चलते चारो ओर ताला बन्दी (Lock down) है और कुछ लोग अल्प कालिक साहित्य सेवा में लग गए है। यहाँ तक कि मेरे पति भी लगातार ब्लॉग लिख रहे है। पर जब से उन्होनें यह विश्वास दिलाया की वे मेरी रचना को न सिर्फ टाईप कर देगें पर अपने ब्लागिंग साईट पर Publish भी कर देंगें मेरे अन्दर की प्रतिभा भी बाहर आने को मचल रही हैं कि क्यो नहीं इस बहती गंगा में मै भी डुबकी लगा लूं। पता नहीं यह पूरी डुबकी बन पाएगी या सिर्फ कौवा स्नान बन कर रह जाएगी। क्योंकी लेखन क्रिया मेरे बस की बात नहीं है। फिर भी कुछ खट्टे मीठे कड़वे या गुदगुदाने वाले अनुभव या यों कहे की यॉदें सबके साथ साझा करने की चेष्टा कर रही हूँ।
    तब की बात है जब मैं 5-6 साल की थी । बाबूजी की Posting नेपाल के बिराट नगर में थी। मै और मेरे छोटे भाई बिमल और किशोर माँ के साथ काठमान्डू से बिराटनगर आ गए थे। हम किराये के मकान में रहते थे । मकान दो मंजिला था। सामने लम्बा सा करीब 10 फीट चौड़ा बरामदा था। इसी बरामदे से लगे कई कमरे थे जिसमें कई और किरायेदार रहते थे। अन्दर कमरे से लगे बरामदे थे। छोटा सा आंगन था और दूसरी ओर रसोई घर था। रसोईघर की खिड़की काफी नींची थी और किशोर जो 2 साल का था रसोई से चम्मच, कटोरी वैगेरह बाहर गिरा देता था। हमारी कामवाली जिसे हम लोग बुढ़ी माई कहते थे रोज शाम को गिराए गए सामानों को ले आती थी। घर के चारो ओर थेथर और अन्य झाड़ों की घनी झाड़िया थी।

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    मकान के उपर के तल्ले में और भी किरायेदार थे। एक कैप्टन साहब भी थे। बगल का एक कमरा मकान मालकिन के भाई का था।उन्हें हमलोग मामा कहते थे। वे कहीं दूसरे शहर में पढ़ाई करते थे और सिर्फ छुट्टियों मे बिराट नगर आते थे। हुआ यों कि एक शनिवार (नेपाल में छुट्टी का दिन) मामा जी आए हुए थे और सिनेमा देखने गए हुए थे। मै और बिमल खेलते हुए घर के पीछे  शायद बॉल ढ़ूंढते ढ़ूंढते चले गए। और झाड़ियों में हमें नजर आया एक साँप की पूरी की पूरी केंचुली। उस समय बिराट नगर में सांप बहुत हुआ करते थे । हमने एक लम्बी छड़ी ढ़ूंढी और उस केंचुली को घर ले आए। यॉद नहीं बॉल का क्या हुआ। शायद बिमल को यॉद हो। छुट्टी का दिन था तो बाबूजी भी घर में ही थे। हमें डांट भी पड़ी कि झाड़ी में क्यो गए और यह क्या उठा लाए। बाबूजी ने छड़ी हमारे हाथ से ले ली और फेंकने निकले।तभी उन्हें कुछ ख्याल आया और उन्होंने उस केंचुली को "मामा" के कमरे की खिड़की से जो खुली थी, पलंग पर मचछरदानी के उपर फेंक दिया। पूंछ उपर और मुंह वाला हिस्सा नीचे की ओर लटका दिया। हमें कहॉ गया कि मामा को डरा कर मज़ा लेंगे। यह घटना 4-5 बजे शाम की थी और हम भूल भी गये थे । रात करीब साढ़े नौ दस बजे चीखने चिल्लाने की आवाज से सब बाहर निकल पड़े। हमारे साथ साथ और किरायेदार, पड़ोसी और मकान मालिक जो बगल में ही रहते आ गए। यानी अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा हो गई। मामा जी के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही थी -- सांप सांप ......। सांप का नाम सुनते ही सभी सूरमा लोग लाठी डण्डे ले कर आ गए। कमरे के दरवाजे को जोर जेर से ठकठकाने लगे कि शायद सांप बाहर आ जाए। अन्दर जाने की हिम्मत किसी में नहीं थी। किधर से आया.? .... उपर कैसे चढ़ा ? अगर मदन (मामा) घर पर होता तो क्या होता ? ..शंका और आशंका। बाबूजी ने आगे बढ़ कर केंचुली निकालने की चेष्टा की यह कह कहते हुए की सांप यहां नहीं है यह तो.....। पर इतनी देर में चार लोगों ने उन्हें पीछे खींच लिया "ज्यादा बहादुर न बनें" ! लोगों की चिन्ता व्यग्रता और उत्तेजना देखकर बाबूजी की हिम्मत नहीं हुई सच्चाई बताने की। सांप के लिए निकले लट्ठ कहीं उनपर ही न टूट पड़े। मकान मालकिन तबतक कोहराम मचाते हुई अपने पति पर विफर पड़ी कि झाड़ियों के कारण ही इतने सांप हो गए है और वे कुछ पैसे बचाने के चक्कर में उनके भाई के जान के दुश्मन हो गए हैं। सबके बार बार शिकायत करने पर भी मकान मालिक झाड़ी साफ नहीं करवा रहे थे।
    बाबूजी ने चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी पर हमारी ओर सशंकित नज़रो से देख रहे थे कि कहीं हम न बोल पड़े । मामा  रात में कहीं और सोए ..कमरे में "सांप" जो था।
    अगली सुबह उजाला होते ही चार मजदूर पहुंच गए और दस बजते बजते सारी झाड़िया साफ हो गई। फिर कमरे की सफाई हुई, सारे  सामान निकाले गए, पर सांप नहीं मिलना था और वो नहीं मिला।
    जो झाड़ियाँ महिनों की शिकायत के बाद भी साफ नहीं हो पायी थी एक छोटे से मजा़क ने करवा दिया। मैंने और बिमल ने रहस्य को रहस्य ही रहने दिया था। पर आज ये रहस्योदघाटन कर ही डाला मैंने। झाड़ी कटने का एक घाटा भी था। किशोर के फेंके सामान अब गायब होने लगे थे।

    तीन पहियों वाली साईकिल-सरोज

    तीन पहिये वाली साईकिल - सरोज सिन्हा 1
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    3 उम्मीद करती हूँ मेरी पहली कहानी आपको पसंद आई होगी। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरे पति एक सेक्रेटरी और टाइपिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं लेकिन मैं इसका अहसान क्यों मानूं ? आखिर मैं भी तो पिछले 47 वर्ष से यही करती आ रही हूँ। लेकिन Editing और Proof reading के लिए मैं उनको धन्यवाद देती हूँ।
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    6 इस बार की कहानी भी बिराटनगर में हमारे प्रवास की ही है जहां माँ, बाबूजी, मै और मेरे 2 छोटे भाई बिमल और किशोर एक किराये के मकान मे रह रहे थे।  जैसा मै पिछली बार बता चुकी हूँ दो तल्ला मकान में एक लम्बा और चैाड़ा बरामदा था उससे लगे कुछ कमरे थे जिसमें कई किरायेदार रहते थे। चारों ओर थेथर और अन्य कंटीली झाड़ियाँ थी। उपर के तल्ले में भी एक कप्तान साहब अपनी पत्नी के साथ रहते थे। हर रात दिन भर के खर्च का हिसाब करते होंगें क्योंकि हम हर रात चिरपरिचित नेपाली सम्बोधन अवश्य ही सुनते थे "सुन्नु भौ दश पैसा को हिसाब मिलेन" (सुनते हो दस पैसा का हिसाब नहीं मिल रहा)।जिस दिन यह सुनने को नहीं मिलता तो सुबह वह चर्चा का विषय हो जाता।
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    9 अब मै असली वाकये पर आती हूँ। हम सभी बच्चे बरामदे में ही खेला करते। बरामदा ऊँचा था। हम कूदकर  नीचे चले तो जाते पर चढ़ने के लिए मदद की जरूरत पड़ती थी। सीढ़ियां झाड़ियों के तरफ थी जिधर सांप होने का खतरा रहता था। मकान मालकिन अपने दूसरे पति के साथ  बगल के दूसरे मकान में रहती थी। मकान उसके स्व० पहले पति का था। पहले पति से उसे एक बेटा था और दूसरे पति से एक बेटी थी। बेटे का नाम था लंगड़ू । अच्छा नाम भी होगा पर उसकी माँ उसे इसी नाम से पुकारती थी। हम भी लंगड़ूू ही कहते। वैसे वह लंगड़ा तो बिल्कुल नहीं था। मुझसे एकाध साल बड़ा होगा। दुबला पतला और लम्बा। हमेशा अपने साईज से बड़ा बुश्शर्ट पहने रहता। ढ़ीला ढ़ाला निकर। शर्ट आधी बाहर आधी अन्दर। शर्ट के बटन भी एक दो टूटे रहते। बाल बिखरे कभी बहुत बड़े तो कभी एकदम छोटे छंटे हुए लगभग मुंड़े हुए। सभी बच्चों में सबसे बेतरतीब। उसकी छोटी बहन लगभग तीन वर्ष की थी। उससे बिल्कुल अलग। हर समय सजी सुन्दर फ्रॉक पहने, बालों में रिबन से बंधी दो चोटियाँ। आँखों में काजल और पैरों में जूते या चप्पल भी जबकी लंगड़ू को हमने हमेशा नंगे पैर ही देखा था। यह वाकया उन्हीं भाई बहनों से सम्बंधित है। उनके पास एक तीन पहियों वाली साईकिल थी । साईकिल पर बहन को बैठा कर लंगड़ू ठेलते हुए बारामदे के कई चक्कर लगाता था। साईकिल पर बैठने के लिए बच्चे कई प्रकार के उपहार से लंगड़ू को मनाने की चेष्टा करते। लेमनचूस से लेकर बॉल तक देने को तैय्यार रहते पर मज़ाल है जो वह किसीको साईकिल पर बैठने देता। कभी बहुत उदारता दिखाता तो पीछे लगे डण्डे पर एक पैर रख कर ठेलने ईजाजत दे देता। वह भी हर किसी को नहीं। इसी कारण सभी बच्चे उसे अपना दुश्मन ही समझते थे। हमने अक्सर उसे अपनी माँ से डांट और मार खाते ही देखा था । बहन की गलती या रोने पर भी मार उसे ही पड़ती।
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    11 एक दिन हमें वह साईकिल बिल्कुल  लावारिस बरामदे में मिल गया। गर्मियों के दिन में हमें बाहर निकलने कि इज़ाजत नहीं थी। और हम शाम को ही बाहर निकलते थे। साईकिल देख कर मेरी और मेरे छोटे भाई बिमल की बाँछें खिल गई। ईधर उधर देखा कोई नज़र नहीं आया तो हमने साईकिल पर कब्जा कर लिया। बिमल बैठ गया और मै धक्का लगाने लगी। अभी बरामदे का एक फेरा लगा कर लौटे ही थे कि न जाने कहां से लंगड़ू नामूदार (प्रकट) हो गया। हमारा इरादा था कि जल्द से जल्द 2-4 फेरे लगा लेते। अगली बारी मेरे बैठने और बिमल के धक्का लगाने की थी। अपने इरादे पर पानी फिरता देख हम फौरन हमला करने के मूड में आ गए। मैं उसे एक तरफ से पकड़ कर पीछे ढ़केलने लगी तब तक बिमल भी आ गया और उसने उसे दूसरे तरफ से पकड़ा और हम उसे बरामदे के किनारे तक ले आए और नीचे उतरने पर मज़बूर कर दिया। उपर चढ़ना उसके बस का नहीं था क्योंकि उसका एक हाथ टेढ़ा था। बचपन में हड्डी टूटने पर इलाज नहीं कराने से हड्डी टेढ़ी जुड़ गई थी। घूम कर आना झाड़ियों के चलते खतरनाक था। अक्सर उसमें सांप दिख जाते। वह चढ़ने की कोशिश करता और हम उसका हाथ हटा देते। फिर तो वह चिल्लाने लगा और जोर जोर से बहन को बुलाने लगा। खैर उसकी माँ या बहन तो नहीं आई पर शोर सुन कर बाबूजी जरूर कमरे से बाहर आ गए। समझ तो गए ही होंगे कि हमने ही गिराया है पर हमें महसूस नहीं होने दिया और हमसे ही उसे ऊपर खिंचवाया और दोस्ती करवायी। बारी बारी से हाथ मिलवाया। वह साईकिल ले कर चलता बना । दोस्ती तो क्या होती वह और भी सावधान हो गया और उसने फिर कभी उस ट्राई साईकिल को अकेला नहीं छोड़ा।
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    मेरी बिटिया लाली बुआ के साथ (भिन्न  साईकिल पर)
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    17 इस तरह मेरी ट्राई साईकिल पर बैठने की हसरत हसरत ही रह गई। पर यह कहना कि यह हसरत कभी पूरी नहीं हुई गलत होंगा। उम्र बढ़ने पर ट्राई साईकिल चलाने की उम्र तो नहीं रही। पर जब मेरी बेटी 2 साल की थी तो उसके लिए एक अद्भुत  ट्राई साईकिल आई। बिल्कुल मोटर साईकिल की तरह । उसकी सीट भी मोटर साईकिल की तरह लम्बी थी। ऐसी कि एक के पीछ एक दो बच्चे आराम से बैठ जाते। हमारा और अन्य पड़ोसियों के क्वार्टर एक common कॉरिडोर से लगे थे। और शाम को हम पड़ोसियों का जमावड़ा किसीके न किसीके यहां लगता था। अक्सर कुर्सियाँ या मोढ़े कम पड़ जाते । बिटिया का साईकिल तब बैठने के काम आता और हमें अपने बचपन की हसरत पूरी होती महसूस होती। बिटिया साईकिल चलाते चलाते कॉरिडोर में कहीं न कहीं छोड़ आती और पड़ोसी उसे हमारे दरवाजे के तक चला कर पहुंचा जाते। वैसी मोटर साईकिल जैसी ट्राई साईकिल फिर कभी नहीं देखी। अनोखी थी वह साईकिल ।
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    देर से ही सही धन्यवाद-सरोज


    हमारे प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी द्वारा किये गए थाली, ताली बजाने और दिया जलाने के आह्वान ने मुझे भी कुछ सोचने पर विवश कर दिया है। कोरोना कहर के बीच अपनी परवाह कर जनता कि सेवा करने वाले डॉक्टर, अन्य स्वस्थ्य कर्मी, सफाई कर्मचारी, पुलिस, सुरक्षा कर्मी, सेना के जवान, बैंक कर्मी इन सब को धन्यवाद कहने का यह अनोखा तरीका मोदी जी ही सोच सकते है। यह सभी लोग हमारी सहायता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पहले से ही करते आये है। मॉल, सिनेमाघर, अस्पताल या किसी रिहायशी  जगह के सुरक्षाकर्मी जब हमारे  लिए दरवाज़ा खोल कर सलाम करता है,  शायद ही लोगों ने धन्यवाद सही, मुस्करा कर ही उनकी काम को सराहा हो।  उनकी तरफ देखने का भी कष्ट नहीं उठाते। हवाई यात्रा में नम्रता से दुहरी हुई जाती एयर होस्टेस द्वारा हमारे  स्वागत में किये नमस्कार का जवाब भी कुछ ही लोग देते है। हमें लगता है यह तो उनके  काम का एक हिस्सा भर  है।

    जीवन यात्रा में भी कई लोग मिल जाते है जो हमारे जीवन में अपनी तरह से प्रभाव डालते है। उस समय उनकी की गई मदद साधारण-सी लगती है। मैं भी अतीत में मुड़ कर देखती हूँ तो कई लोग याद आते है जिन्होंने हमारे लिए कभी न कभी कुछ किया था। आज मैं उनको धन्यवाद देना चाहती हूँ। कभी-कभी तो एकदम अनजान अपरिचित लोगों ने भी सही समय पर सहायता या सहयोग दिया है । ऐसी ही तक़रीबन पचास साल पुरानी एक घटना अभी याद आ रही है। जब मैं  काठमांडू के एक कॉलेज में पढ़ रही थी । मैं और मेरी एक सहेली दोपहर तीन बजे के करीब कॉलेज से घर लौट रही थी। रास्ता बनाने के लिए एक तरफ मिट्टी का ढेर लगा था और दूसरी तरफ एक 5-6 फ़ीट गहरा और 20 फ़ीट चौड़ा और कुछ ज़्यादा ही लम्बा गड्ढा था। बारिश के दिन थे और इस कारण वह गड्ढा कीचड़-कीचड़ था और दलदल बना हुआ था। उसी गड्ढे के बगल से निकल कर आगे रोड तक जाने का ये हमारा रोज़ का रास्ता था, उन दिनों वहां पूरा खेत था जिसके बीच से एक पतली गली जाती थी । किनारे एक काम चलाऊ गेराज भी था ।  घूम कर पक्के रास्ते  से जाने पर दो ढाई किलोमीटर का चक्कर पड़ जाता था । उस दिन कुछ दूर पर कुछ गायें चर रही थी और उनके बीच एक हठ्ठाकठ्ठा साढ़ भी था । लोग फिर भी आ जा रहे थे । हमें खतरे का कोई अहसास नहीं हुआ क्योंकि वे खासी दूरी पर थे और लोग आ जा भी रहे थे । पर जैसे ही हम गढ्ढे के किनारे किनारे कुछ दूर गए होंगे हमने देखा की वह सांढ़ फुंफकारते हुए हमारी ओर ही चला आ रहा था हम दोनों घबरा कर कोई और चारा न देख कर उसी  गढ्ढे़ में उतर गए । आस पास के लोगों ने फिर साढ़ को खदेड़ दिया  खदेड़ने वालों में  गेराज के मैकेनिक भी थे  इस  भगदड़ और  आपाधापी में मैं कुछ ज्यादा ही नीचे उतर गयी थी । मेरे दोनों पैर कीचड़ में धंस गए थे । एक पैर किसी तरह निकल कर एक सूखी  जगह रख कर मैंने दूसरे पैर भी किसी तरह निकला पर चप्पल तो वहीं अटक गयी । कीचड तबतक बराबर भी हो गया था । मैं पैर कीचड में डाल कर चप्पल निकालने की कोशिश करने लगी पर नाकाम रही। गढ्ढे के ऊपर नज़र गई तो देखा दस पंद्रह लोग इकठ्ठा हो चुके थे। दशहत और शर्म से मानों कलेजा बाहर आने को बेताब हो रहा था। मैंने दूसरा चप्पल भी वहीं छोड़ा और बाहर निकल कर नंगे पाँव ही घर की  ओर  चल दिए।

    अगले दिन फिर उसी जगह वही साढ़ नज़र आया हमें जाने की हिम्मत पडी और हम लम्बे रास्ते  की ओर बढ़े ही थे की कुछ लड़के हाथों में लकड़ी लिए हुए दौड़े आये और उन्होंने उन गायों औ उस साढ़ को वहां से खदेड़ दिया इसी बीच एक लड़का मेरी तरफ आया और एक थैला  मेरे हाथों में थमा कर भाग गया थैले में अख़बार में लिपटे सामान को खोलने पर मेरे दोनों चप्पल निकले, धुले, सुखाये और पॉलिश किये हुए मैं कभी नहीं जान पायी वह कौन था   शायद गेराज में काम करने वालों में से कोई था

    आज मैं सोच रही थी हमारे पास सांढ से बचने के कोई और ऑप्शन थे क्या? नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल  में एक प्रोग्राम आता है “Do or Die” जिसमें ऐसे ही कठिन परिस्थिति में बचने के तीन ऑप्शन दिए जाते है और एक ही सही होता है जैसे A) हम या तो पीछे मुड़ कर सांढ से ज्यादा तेज़ भाग लेते । Bअपने शाल को मेटाडोर की तरह प्रयोग कर के सांढ़ से पीछा छुड़ा लेते । C) गड्ढे में उतर जाते निश्चित रूप से नेशनल जीयोग्रफिक्स चैनल भी ये ही  बताता की C) ऑप्शन ही सही था   हा हा हा


    दूसरी घटना कॉलेज के शुरुआती दिनों के है । कॉलेज का ड्रेस था खादी की गेरुआ + लाल, और कथ्थई बॉर्डर वाली साड़ी । साड़ी मोटी और भारी थी और हम थे नवसिखिया । कभी साड़ी एक बार में ही मनचाहे तरीके से लिपट जाती और कभी अड़ियल टट्टू की तरह ज़िद पर अड़ जाती तो बार बार कोशिश करने पर भी ठीक से पहन न पाते ।  इसी चक्कर में अक्सर कॉलेज के लिए देर हो जाती । माँ, चाची को देख कर बड़ा आश्चर्य होता की साड़ी पहन कर हर काम कैसे आसानी से कर लेती हैं। साड़ी तो पहन लेते पर  सड़क तक आते आते साड़ी पैरों में लिपटने लगती । छोटे छोटे कदम चलने पड़ते ।  फिल्म "दीवाना मस्ताना" में गोविंदा के बेबी स्टेप देख कर बरबस अपनी स्थिति याद आ गयी थी। इसके  चलते बस स्टॉप पहुंचने में देर हो जाती । दूर से बस दिख तो जाती पर दौड़ना मुश्किल होता । पूरी ताकत लगा कर चलते पर तेज़ चल  न पाते । बिलकुल निराश हो जाती। सभी यात्री चढ़ जाते और बस अभी खुली की तभी खुली की स्थिति में आ जाती। अभी भी हम दूर ही होते । लेकिन यदि बस कंडक्टर ने हमें देख लिया होता तो २-३ मिनट बस को रोके रखता ताकि हम पहुंच जाए ।  बस कॉलेज गेट के सामने से ही गुजरती पर बस स्टॉप आधा किलोमीटर आगे था या आधा किलोमीटर पीछे । साड़ी पहन कर हमारा इतना चल लेना भी बड़ा काम था । अक्सर कंडक्टर हमें पहले स्टॉप पर उतरने से रोक देता और कॉलेज गेट के सामने बस रोक कर हमें उतर देता ।   मैं आज भी उन बस ड्राइवर और कंडकटर का कृतज्ञ हूँ ।

    हमारे घर की एक सदस्य बुढ़ी माई  भी जिन्होनें  लगभग पच्चीस वर्ष तक हमारे साथ रह कर सबकी सेवा की भी धन्याद की पात्र  है । उन्होंने हम बच्चों की अनेकों  ज्यादतियां बड़बड़ाते कोसते हुए ही सही बर्दास्त किया । कभी हम कुत्ते का बच्चे उठा  ले आते या मुर्गी के चूज़े । हमरी जि़म्मेदारी तो बस उनसे खेलने की होती । उन छोटे छोटे चूज़ों और पिल्लों की गन्दगी सांफ करना । समय पर दड़बे से बहार करना, या फिर बंद करना बुढ़ी माई ही करती ।  बुढ़ी माई की कथा कहने लगू तो यह ब्लॉग काफी लम्बा हो जाएगा तो अगली बार फुर्सत से ।

    बूढी माई की अनोखी कहानी पार्ट- ३ - सरोज

    यात्रा या यात्रा करने के साधन याद करूं तो अनेक रोचक प्रसंग याद आते हैं । बचपन से ही काफी सारी स्मरणीय यात्राएं करने का संयोग प्राप्त हुआ है। दादीगृह दरभगां है, बाबूजी विराट नगर में नौकरी पर थे और नानीगृह काठमाण्डू होने से रेलगाड़ी और बस से काफी यात्राएं करनी पड़ती थी। दरभंगा से विराटनगर की यात्रा के बीच ट्रेन भी बदलनी पड़ती। स्टेशन पहुंचते ही यात्रियों के बीच सूचनाओं का आदान प्रदान शुरु हो जाता। "आगे वाले या पीछे वाले कुछ डब्बे रास्ते में कट कर कहीं और चले जाएगे" या "आगे वाले डब्बे में भीड़ कम होगी"। यह तब का सर्व सुलभ गूगल हुआ करता था। अक्सर लोग अपनी चिन्ताओं और शंकाओं का समाधान इन सूचनाओं के बल पर कर लेते। सामान भी उसी जगह रखवाया जाता जिस जगह इच्छित डब्बे के आने की संभावना होती। पर लाख चाहने पर भी ऐसा   इच्छित डब्बा या तो आगे जा कर रुकता या पीछे ही रह जाता।

    मीटर गेज या छोटी लाईन की पैसेंजर ट्रेनों में तब खिड़की में रॉड नहीं हुआ करता था।भीड़ इतनी की हम बच्चे सहम जाते। हमें याद नहीं कि हमने बचपन में कभी दरवाजे से डब्बे में प्रवेश किया हो। गाड़ी के प्लेटफार्म में प्रवेश करते ही यात्री या उन्हें छोड़ने आए लोग हाथ में गमछा लिए दौड़ पड़ते और खिड़की से ही उतरने वाले यात्री के सीट पर गमछा, रुमाल आदि रख दिया जाता। कभी कभी गमछा सही जगह रखने के लिए अंदर बैठे यत्रियों की मदद भी ली जाती। जैसे ही गाड़ी रुकती एक एक कर बच्चों को खिड़की से अन्दर ट्रान्सफर कर दिया जाता । कुछ सामान भी खिड़की के रास्ते अंदर आ जाता और फिर बड़े लोग  माँ, बाबूजी भीड़ के बीच जगह बनाते हुए अंदर पहुँचते। सामान भी कम नहीं होता । टीन का बक्सा और होल्डाल तो अत्यावश्यक चीज़ होती थी। साथ में थैला वैगेरह भी होता। पानी का लोटा, गिलास, खाने पीने का सामानों से भरा बाँस या बेंत की बनी टोकरी भी होती। अंदर सीट पर विराजमान यात्रियों के लिए नए आये यात्री तो घुसपैठिये होते। कुछ तू-तू मैं-मैं भी होती पर १५-२० मिनट में भाईचारा स्थापित हो जाता। नए यात्रियों के टिकने भर की जगह निकल आती। बच्चों के बैठने की व्यवस्था भी हो जाती। एक दूसरे से नाम पता कहाँ जाना है वैगरह पूछा जाता और कभी-कभार जान पहचान भी निकल आती।


    स्टेशन पर गाड़ी रुकने के पहले ही चापाकल देख लिया जाता। गाड़ी रुकते ही लोटा लिए शीतल जल के लिए लोग  नजदीक वाले या जहाँ भीड़ कम हो उस नल की ओर दौड़ जाते।   कभी कभी पहुंचने पर पता चलता की भीड़ जिस नल पर कम है वहाँ पानी भी कम आ रहा है । मर्फी'ज लॉ हर जगह लागु होता ही है। बाबूजी के पास एक फौजी फेल्ट का कवर लगा एक टम्बलर था जिसमें पानी काफी समय तक ठंडा रहता। उन्हीं यात्राओं के दौरान एक बार चापाकल को डब्बे के बिलकुल सामने देख माँ ने हमारी ('बूढ़ीमाई' मेरे पहले के ब्लॉग देखे) को पानी लाने का आदेश दिया। 'बूढ़ीमाई'  हम लोग के साथ ही यात्रा कर रही थी। ट्रेन वहाँ काफी देर रुकती थी। बूढ़ीमाई नीचे उतरी और अभी पानी भर ही रही थी की ट्रेन चल पड़ी। जब तक दौड़ी, गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली। असल में ट्रेन के कुछ डिब्बे वहाँ कटते थे जिसके लिए ट्रेन को यार्ड में जाना था।
    गाड़ी ने गति पकड़ ली तो बाबूजी भी उतर न सके लेकिन उन्हें पता था कि ट्रेन लौट कर उसी प्लेटफार्म पर आएंगी सो वे ज़्यादा चिंतित नहीं थे। पर आधे घंटे बाद जब ट्रेन वापस आई और बाबूजी नीचे उतरे तो चकरा गए, क्योकि चापाकल के पास २०-२५ लोगों की भीड़ इकठ्ठा थी। घबराये बाबूजी वहाँ पहुँचे तो भीड़ के बीच बूढ़ीमाई को देख कर उनकी जान में जान आई । जो भीड़ अब तक बूढ़ीमाई को मुखातिब थी अब बाबूजी को प्रश्नो से बींधने लगी। कैसे मालिक हैं? अजीब लोग हैं इत्यादि। बाबूजी जल्दी पानी का लोटा और बूढ़ीमाई दोनों को लेकर ट्रेन पर सवार हो गए। हुआ यह कि गाड़ी में चढ़ने की चेष्टा में असफल होते ही बूढ़ीमाई पछाड़ खा कर गिर पड़ी और बिलख बिलख कर रोने लगी। लोगों ने समझाने की कोशिश की कि ट्रेन वापस आ जाएगी पर बूढ़ीमाई का क्रंदन कम न हुआ। वह उनके सभी सवाल जैसे  "मालिक का नाम क्या हैं?" " कहाँ जाना है?" " कहाँ से आ रही हो?" का जवाब  नेपाली में दे रही थी "थाहा छैन"  यानी पता नहीं। अजनबी वेशभूषा, अजनबी भाषा लोगों को आकर्षित कर रही थी।  सबका मुफ्त मनोरंजन भी हो रहा था। इस घटना के बाद बूढीमाई को कभी किसी भी काम के लिए ट्रेन से नीचे नहीं भेजा गया और बूढ़ीमाई? वह तो गंतव्य तक ऐसे पालथी मार कर बैठ जाती कि हिलने  का नाम न लेती।नतीजन आठ नौ घंटे की यात्रा में उसके दोनों पैर सूज जाते थे। अनोखी थी हमारी बुढ़ीमाई। माँ का स्नेह और बच्चे की निश्चलता दोनों एक साथ थी उसमें।
    बोतल बन्द पानी के बढ़ते उपयोग से नल के पानी पर निर्भरता कम हो गई है। अब विरले ही पीने के पानी के लिए लोटा ग्लास ले कर चलते है। बोतल बन्द पानी आसानी से ले जाया जा सकता है या प्लेटफार्म या ट्रेन के अन्दर खरीदा भी जा सकता है। सीट या बर्थ भी अब पहले ही आरक्षित कर सकते है । और तो और अब तो बिना रॉड वाले डब्बे भी नहीं होते। पर अब नई परेशानियों ने पुरानी की जगह ले ली है।आज बस इतना ही ।

    कुछ और अनुभव फिर कभी ।


    बूढी माई की अनोखी कहानी पार्ट- २ - सरोज

    मै पहले भाग में अनोखी और सरल बूढ़ी माई के बारे में लिख चुकी हूँ। शायद पढ़ा हो आपने। फिर से पढ़ना चाहे तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
    दूसरा भाग
    पिछली बार मै उन्ही घटना के बारे में ही बता पाई जो हमारे सामने घटित हुई।उसने अपने पूर्व जीवन के बारे में टुकड़ो में जो भी बताया उसे संकलित कर बाकी की कहानी प्रस्तुत है।

    बुढ़ी माई को हमारे घर काम करने के लिए उसका पति लेकर आया था और हिदायत दे कर गया था कि तनख्वाह के पैसे लेने वह खुद आएगा।हर महीने के पहले शनिवार को वह पहुंच जाता।अपनी 'बूढ़ी' को आवाज देता और पैसे ले कर चला भी जाता पर बूढ़ी माई घर के अन्दर ही कहीं दुबकी रहती।जब तक उसे विश्वास न होता कि उसका 'बूढ़ा' चला गया तब तक वह बाहर नहीं निकलती। मैनें एक बार पूछा तो बोली कि मेरा घर यही है।उसे डर था कि वह उसे अपने साथ उसके घर न ले जाए। लगभग ४५ की थी जब वो हमारे घर आई थी।पहाड़ पर कठिन परिश्रम और उस से भी कठिन मौसम झेलने के चिह्न पहाड़ी लोगों के चेहरे पर झुर्रियों के शक्ल में उभर आता  है और वे उम्र से ज्यादा उमरगर नज़र आने लगते हैं।

    मै, बुवा (नाना) , किशोर और विमल
    अपने बारे में ज्यादा बात करने की आदत नहीं थी उसे, पर टुकड़ो में  कभी कभी कुछ बता देती। यह उसका तीसरा पति था। खाना बनाना उसे बिल्कुल पसंद नहीं था । शायद पहला पति इसीलिए दूसरी बीबी ले आया था ।  फिर भी समस्या नही सुलझी।दूसरी को भी यह मंजूर नहीं था कि वही   हमेशा खाना पकाए। तो पति ने समाधान निकाला और एक दिन के अन्तराल पर दोनो में काम का बंटवारा कर दिया । पानी लाना,  सफाई,  बकरी चराना, उनका चारा लाना, लकड़ी लाना सारे काम वह खुशी खुशी कर देती पर जिस दिन खाना बनाने की बारी होती वह मुंह अन्धेरे बकरियाँ लेकर पहाड़ी जंगल में निकल जाती । सुबह निकलते समय चूड़ा, भूँजा, नमक की पोटली बांध लेती देर शाम को ही चारा घास लेकर लौटती ताकि रात का खाना भी न बनाना पड़े। झख मार कर दूसरी को ही खाना बनाना पड़ता और फिर जो खूब झगड़ा होता होगा कल्पना ही कर सकते है। आखिर परेशान हो कर भाग गई किसी और के साथ। पर यहाँ तो आकाश से गिरे खजूर पर अटके वाली हालत थी। इस दूसरे पति की पहले से ही दो पत्नियाँ थी। अब पति के साथ दो-दो सौतनों को भी झेलना था। जब बरदाश्त न कर सकी तो फिर भाग गई तीसरे पति के साथ । लेकिन खाना बनाने को लेकर यहाँ भी रोज़ झिक-झिक होने लगी। पति ने उसे यहाँ काम पर लगाया और अपनी गृहस्थी संभाल ली नई बीवी के साथ।

    तीन-तीन शादी करने के बाबजूद उसको कोई बच्चा न हुआ। एक बार हमने उसे पूछ लिया उसके बच्चों के बारे में तो बहुत आहत स्वर में कहा था तुम लोग क्या मेरे बच्चे नहीं हो? फिर हम भाई बहनो ने यह प्रश्न कभी नहीं किया। मेरे दूसरे भाई किशोर के जन्म के कुछ महीने बाद ही हमारे घर आई थी। दो साल बाद अनिल और फिर गुड्डू का जन्म उसके सामने ही हुआ था। अनिल के प्रति कुछ विशेष ही स्नेह था उसका।

    झुर्रियों से भरा चेहरा,  छोटा कद लेकिन मजबूत काठी। होठ हमेशा बुदबुदाने के कारण हिलते रहते। अक्सर सामने कोई  नहीं होने पर भी 'हट हट' बोलते हुए चलती। सुन कर हम खूब हंसते। उसके अनुसार हवा में हमेशा अदृश्य आत्माएं घूमती रहती है। उनसे टकराना अच्छा नहीं । हमारे हंसने पर कुछ आहत भी होती।

    सप्ताह में एक दिन पूरे घर में पूजा करती, नज़र उतारती , हर कमरे के उपर अबीर का टीका लगाती फिर हम बच्चों का नज़र उतारती। रेडियो को 'रेड्डी' बोलती। लोकगीत कार्यक्रम में जब भी तामांग गीत बजता बैठ कर मनोयोग से सुनती और आश्चर्य व्यक्त करती कि इस 'रेड्डी' को हमारा गाना कैसे पता है ? हमारे अनुरोध पर एक दो लाईन गा कर भी सुनाती।

    किसी बाहरी लोग से 'अपने  घर' की आलोचना बिल्कुल मंजूर न था। चप्पल पहनना उसे बिल्कुल पसंद न था। आस पड़ोस के लोग व्यंग से टोक देते 'मालिक ने एक चप्पल भी नहीं दिलवाया ?' तुनक कर जवाब देती 'मालिक ने मुझे इतने चप्पल दिए हैं कि उन्हें बिछा कर सोती हूँ अगर चाहिए दो चार दे सकती हूँ।' और फिर गुस्से में फनफनाती भुनभुनाती घर लौटती और माँ को पूरी घटना बताती।

    हम चार भाई बहनों के उत्पात का अन्त न होता (गुड्डू तब बहुत छोटा था) । सबके  फरमाइस व अत्याचार सहती। आपस में हमारी लड़ाई भी खूब होती, और माँ से डाँट और पिटाई भी मिलती। लेकिन माँ के पहले थप्पड़ पर ही बूढ़ी माई भुनभुनाती घर के दूसरे भाग में नानू-बुवा (नानी, नाना)  के पास पहुंच जाती। हांफती, कांपती आवाज में 'गुहार लगाती' कि आज तो किसी बच्चे की जान जाने वाली है, जल्दी चलिए। पूरी बात कहने का अवकाश कहाँ था बूढ़ी माई के पास। जान जाने की बात पर नानू-  बुवा घबड़ा कर चले दौड़े चले आते। उन्हें देख कर माँ हतप्रभ रह जाती। माँ को ही झिड़की सुननी पड़ती और हम मुंह छुपा कर हँसते। धीरे धीरे हम बड़े हो गए और हमारी जगह हमारे ममेरे और मौसेरे  छोटे भाई बहनें ने ले ली। उनके लिए भी बूढ़ी माई उतनी ही चिन्तातुर रहती।
    बूढ़ी माई हमारे बचपन और जीवन की अटूट हिस्सा थी। मेरे अगले ब्लॉगों में वर्णित कई घटनाओं की नायिका भी बूढ़ी माई है,  आशा है आप पढ़ेगें।

    बूढी माई की अनोखी कहानी पार्ट- १ - सरोज

    जीवन के सफ़र में अनेक लोगों से साबका पड़ता हैं। कभी पढ़े लिखे डिग्री हासिल किए लोगों की संकीर्ण मानसिकता हमें दुखी कर जाती है और कभी बिलकुल अनपढ़ और लोगों की नज़र में गंवार समझे गए लोगों का नज़रिया आश्चर्य में डाल देता है। ऐसा ही विलक्षण  व्यक्तित्व था बुढ़ीमाई का। बचपन से ही बूढ़ीमाई को साथ देखा था। ५ वर्ष की थी जब वह हमारे यहाँ रहने आई । मेरे दूसरे छोटे भाई किशोर के जन्म के समय से ही लगभग पच्चीस वर्षों तक साथ रही। छोटा-सा कद, चेहरे पर अनेक सिलवटें और झुर्रियों का जाल । पर होठों पर एक मुस्कुराहट। ऊँची साड़ी और कमर में पटुका बाँधे हर समय काम में ब्यस्त।
    बुढ़ी माई रूपा, किशोर, बबली और मुन्ना के साथ
    पूरे घर की सफाई, पुताई उसकी ही जिम्मेवारी थी । काठमांडू में पुराने घरों में फर्श मिटटी के ही होते थे । महीने में एक दिन फर्श पर बिछी दरी और चादर उठाकर धूल झाड़ा जाता, धूप दिखाई जाती । घर के फर्श पर मिटटी और गोबर की पुताई की जाती। सूखने पर सभी सामान यथास्थान रखा जाता। सोफे या कुर्सी का प्रचलन नहीं था । बैठने के लिए मोटे-मोटे गद्दे (नेपाली में चकती) की आसनी बनी होती जिसमें सफ़ेद या हल्के रंग के गिलाफ चढ़े होते जिन्हें हर हफ्ते धोया जाता ।रसोई की लिपाई पुताई हर रोज़ होती थी। घर में सबसे नीचे झिरी होती जिसका उपयोग स्टोर रूम या गाय आदि बांधने के लिए किया जाता। पहला तल्ला रहने सोने के लिए होता। रसोई सबसे उपर attic में होता।  लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता। सुबह सबेरे उठकर चूल्हा जला कर पीने का पानी उबलने के लिए बड़ी देग में चढ़ाया जाता। चाय का पानी चढ़ा कर दो बोरसी में आग सुलगा कर बूढ़ीमाई अपनी बोरसी ले कर बैठ जाती चाय के इंतज़ार में। माँ के रसोई में पहुँचने तक चाय का पानी उबल चुका होता। पीने का पानी भी उबल चुका होता । उसे हटा कर दाल का अदहन चढ़ा दिया जाता। दो आँख वाले चूल्हे पर एक ओर दाल उबलता होता और दूसरे पर चाय बनती, दूध गरम होता ब्रेड सेंका जाता। नाश्ता निपटने तक सब्जी बनने लगती फिर चावल चढ़ा दिया जाता। नाश्ता कर हम पढ़ने बैठ जाते। दस बजे स्कूल और ऑफिस जाने के लिए खाना बन कर तैय्यार हो जाता। बूढ़ी माई का काम माँ के साथ चलता रहता। दो मंजिले (नेपाली: ब्यूंगल, English Attic) पर रसोई घर था और नल नीचे आँगन में था। वहाँ से पानी भर लाना, मसाला पीसना, सब्जी धोना सभी काम चलता रहता। हम सभी चाय, दूध पी लेते तो केतली बूढ़ी माई को थमा दिया जाता । शुरू-शुरू में माँ सबके साथ-साथ बूढ़ी माई को भी उसके गिलास में चाय दिया करती और दोपहर का खाना भी थाल में निकाल कर पकड़ा देती । लेकिन हमारी अनोखी बूढ़ीमाई असंतुष्ट ! दिन भर बड़बड़ाती रहती । चाय भी नहीं मिला या खाना नहीं खाया या चाय ठीक नहीं था। बच्चों को स्कूल भेजने की हड़बड़ी में किसी दिन माँ ने केतली ही पकड़ा दी और उसदिन उसकी संतुष्टि और मस्कुराहट देख कर माँ को समझ में आया। भले ही किसी दिन केतली में बची चाय से उसका गिलास आधा ही भरता, माँ की और चाय बना कर देने की पेशकश बड़ी बेफिक्री से ठुकरा देती, यह कहकर की ज़्यादा चाय नहीं पीनी चाहिए. खाने के मामले में भी यही बात थी । खाने के बाद रसोई बुढ़ीमाई के हवाले हो जाता। सब्जी धोने वाले कठौती में खाना परोसकर आनंद ले कर खाते देखना हम बच्चों के लिए कौतुक भरा रोचक दृश्य था। कभी कभी वह सब्जी परोसने वाली बड़ी चम्मच को ही अपने खाने का चम्मच बना लेती।
    शाम के नाश्ते में कभी हलुवा, खीर या कुछ नया बनता तो हम बच्चे कुछ ज्यादा ही खा लेते। माँ हम सबका हिस्सा निकाल कर बुढ़ीमाई का हिस्सा उसी बर्तन में छोड़ देती । हम और मांगते तो माँ को मना करना पड़ता । तब बुढ़ीमाई अपना हिस्सा हमें बाँट देती और कहती बच्चों को अतृप्त रख कर मैं कैसे खा पांउगी। हमें भी यह "ज्ञान" हो गया कि बुढ़ीमाई को स्वादिष्ट चीजों की जरूरत नहीं ! क्योंकि माँ नाश्ते में कुछ चूड़ा, मुढ़ी या ब्रेड दे देती । तो एकदिन हमनें कड़ाही में छोड़े बुढ़ीमाई का हिस्सा आपस में बाँट लिया। उस दिन उसकी असंतुष्ट बड़बड़ाहट से माँ को घटना का पता चला। सबसे बड़ी होने के चलते मुझे डांट के साथ हिदायत मिली। पर इसमें भी सबसे ज्यादा दुःख बुढ़ीमाई को ही हुआ कि उसके कारण हमें डाँट पड़ रही है।
    घर में अक्सर मेहमान पशुपति दर्शन के लिए आते ही रहते। सप्ताह भर रह कर काठमाण्डू भ्रमण कर वापस लौटते। सुबह शाम बर्तनों का ढ़ेर लग ही जाता पर उसका चेहरा मलिन न होता। "चेहरे पर शिकन  नहीं पड़ती" ऐसा इसलिए नहीं कहा क्योंकि इतनी झुर्रीयों और शिकन के बीच कोइ "एक शिकन" कैसे पता चलता। लेकिन कुकर के मामले में ऐसा न था। कुकर के अन्दर मुड़े किनारे के कारण शायद धोने में दिक्कत होती या पानी ज्यादा लगता जो उसे नीचे से ढ़ोकर लाना होता।बड़बड़ाती रहती 'कितना कहती हूँ इस लामपुच्छ्रे (लम्बी पूंछ ) को मत निकालो पर कौन सुने।

    किशोर के जन्म के समय आई बुढ़ीमाई मेरे छोटे भाई अनिल और गुड्डू के जन्म की साक्षी बनी। हम पांच भाई बहनों के रोज़ के हड़कंप को कितनी सरलता से संभाल लेती। कभी हम कुत्ते के पिल्लों को उठा लाते एक दो नहीं चार-चार । फिर माँ के डांटने पर एक को रख कर बांकी वापस रख आना पड़ता या कोई लेने वाला हुआ तो बड़ी अहसान और हिदायत के साथ दिया जाता। पिल्लों में से एक का चुनाव बड़ी समझदारी से किया जाता। हम भाई बहन बारी-बारी से पिल्लों को दोनों कान से पकड़ कर उठाते और झुलाते। जो पिल्ला कूँ-कूँ करता वह प्रतियोगिता से बाहर हो जाता। चार दिनों तक कुत्ते की पावरिश हम बच्चे बड़ी जिम्मेदारी से उठाते, खाना पानी का ध्यान रखा जाता पर उसकी गन्दगी साफ़ करने का काम तो बूढी माई को ही करना पड़ता। सप्ताह दस दिनों के बाद हमारा ध्यान शायद मुर्गी के चूज़ों पर चला जाता और हम उसे अपने पॉकेट खर्च को बचा खरीद कर ले आते। उनका भी यही हाल होता। फिर सारी जिम्मेदारी बुढ़ी माई की ही होती। शाम को सभी चूज़ों को गिनकर दरबे में बंद करती सुबह दरबे से निकाल कर दाना पानी देने से लेकर पूरे आँगन में फैलाये गन्दगी दिन में दो बार साफ़ करने तक। लेकिन सभी समय बुदबुदाती बड़बड़ाती रहती।
    कुत्ते की गन्दगी साफ़ करते वक्त "मरता भी नहीं" उसे ऐसा बड़बड़ाते हमने कई बार सुना था। वह कुत्ता था भी बहुत असभ्य। बालकनी (बार्दली) के लोहे के छड़ के बीच से गर्दन बहार निकाल कर हर आने जाने वाले पर पूरी ताकत से भौंकता रहता। कभी-कभी इतना उत्तेजित हो जाता लगता ऊपर से ही कूद पड़ेगा। कई बार रास्ते चलने वाले बच्चों के पीछे भी पड़ गया था तब से उसे बांध कर ही रखते। जिन बच्चों को दौड़ाया था वे बदला लेने के लिए उसे गुलेल से पत्थर मारते। एक दिन एक पत्थर ने उसकी आंख ले ली। उस दिन हमने बूढी माई को रोते देखा ! दूसरी बार कुछ सालों बाद, वह कुत्ता जिसका नाम ही हमने डेंजर रखा था अचानक गायब हो गया। अक्सर वह गायब होने पर एक दो दिन में वापस भी आ जाता। पर इस बार नहीं लौटा। पता नहीं कहाँ चला गया। हमने गली मोहल्ले में पूछा, खोजा पर नहीं मिला। मोहल्ले वालों ने तो रहत की साँस ली होगी। पर बूढ़ी माई के चेहरे की वह मुस्कान उन दिनों गायब हो गई। उठते बैठते बड़बड़ाती श्राप देती रहती। उसके ख्याल से किसी कुत्ता पीड़ित ने ही उसे मार डाला होगा सो उस अदृश्य हत्यारे को कोसती रहती। जब हमने याद दिलाया कि उसके मरने का मनता तो वह खुद ही करती रहती थी तो बूढी माई आहत हो गयी। मरने का मतलब "मर जाना नहीं होता" उसका कहना था। मनुष्य का जीवन बड़े पुण्य के बाद मिलता है इसलिए जीवन को भगवान का आशीर्वाद मान कर ज़्यादा से ज़्यादा सार्थक बनाना चाहिए. किसी ज्ञानी पंडित की तरह उसके विचार सुनकर माँ भी आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगी थी। पढ़ने के समय अगर हम कहीं और दिख जाते तो तुरंत टोक देती। उसको अपने नहीं पढ़ पाने का अफ़सोस शायद था। जिसको पढ़ने लिखने का मौका मिला उसे उसका महत्त्व नहीं होता उसकी डांट के शब्द होते। माँ के डांट से भी हमें बचाती रहती।
    लोगो से ज़्यादा मोह माया नहीं रखना चाहिए, ऐसा उसका विचार था। पर आचरण में उलट ही दिखता । शब्दों में वह अपनी भावना ब्यक्त नहीं करती थी पर उसकी खुशी और सुख दुःख की अभिव्यक्ति उसके चेहरे पर साफ़ दिख जाती । एक वाकया हमें याद है जब मैं अपने दो साल की बिटिया को लेकर काठमांडू आई हुई थी। जनवरी की जमा देने वाली सुबह। हम सब चाय पीने रसोई घर पहुँचे। बूढी माई भी सभी काम निपटा कर एक बोरसी लिए ठिठुरती उंगलियों को गरमाने में लगी थी। मेरी बिटिया सानु मेरा हाथ छोड़कर बूढी माई के सामने खड़ी हो गयी। बूढी माई ने बोरसी दूर सरका दी। तब तक सानु उसका शाल सामने से हटा कर उसकी गोद में बैठ गयी और शाल से अपने हाथ पैर ढ़क लिए। उस दिन बूढी माई के चेहरे पर जो तृप्ति की मुस्कान मैंने देखी आज भी मेरे आँखो के सामने है। उस मुस्कान में क्या था ? इस घर को अपना समझने की तृप्ति जिसका मूल्य इस बच्ची ने चुका दिया।
    अभी भी बहुत कुछ हैं हमारी अपनी बूढी माई के याद करने के लिए । फिर कभी।

    भूली बिसरी यादें "कनकटवा दादा" लेखिका स्व राजन सिन्हा

    अब तक मैने अपनी रचनाए आपसे सांझा की है, अब मै अपनी स्वर्गीय माँ द्वारा लिखित कथा कहानियाँ मे से एक  सांझा कर रहीं हूँ। यह इस श्रंखला की दूसर...